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तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकारे
फल देने की सामर्थ्य है इससे उन कर्मों की अन्वर्थ संज्ञा को जान लिया जाता है अन्य प्रकारों से उन कर्मों के नामों की स्मति नहीं हो रही है। गुरुवर्गक्रम अनुसार आचार्य परम्परा में जो बात जैसी स्मृत हो रही चली आ रही है ग्रन्थकारों को उसी प्रकार उसका निरूपण करना पडता है। यहां प्रकरण में कर्मों के नाम उसी प्रकृति प्रत्ययार्थ को लेकर प्रसिद्ध चले आ रहे हैं और तिस प्रकार अनुभव देते हुये प्राप्त हो रहे कर्मों के साथ संसारी आत्मा का यह तीसरा अनुभवबंध हो जाता है । इस अनुभव बंध की अन्य आस्रव की अपेक्षा विशेषतया है, अर्थात् यदि कर्मों में अनुभवबंध नहीं पडे तो अन्य कोरे आस्रवों या प्रकृति, प्रदेश बन्धों से आत्मा की कोई क्षति नहीं हो सकती हैं। छोटे से एकेन्द्रिय जीव में स्थितिबंध और प्रदेशबंध भले ही स्वल्प हैं किन्तु अनुभवबंध प्रकृष्ट है। अतः अनुभवबंध अन्य बन्धों की अपेक्षा विशिष्ट हो रहा चमत्कारक है।
किं पुनरस्मादनुभवाद्दत्तफलानि कर्माण्यात्मन्यवतिष्ठते किं वा निर्जीयंत इत्याह
यहां सूत्रकार महोदय के प्रति किसी जिज्ञासु का प्रश्न है कि फिर इस अनुभव करने से फल को दे चुके वे कर्म क्या आत्मा में वहीं ठहरे रहते हैं ? अथवा क्या वे कर्म निर्जरा को प्राप्त हो जाते हैं ? ऐसी जिज्ञासा प्रवर्तने पर महामना सूत्रकार अग्रिम सूत्र को कह रहे हैं।
___ततश्च निर्जरा ॥ २३ ॥
और उन कर्मों के अनुभव हो जाने के पश्चात् उन कर्मों को निर्जरा हो जाती है। अर्थात् खाया हुआ भात जैसे आत्मा के लिये सुख या दुःख देकर मलाशय द्वारा निकल जाता हैं वहीं पेट में नहीं ठहरा रहता हैं उसी प्रकार कर्म भी अपनी स्थिति की पूर्णता हो जाने से फल देकर निर्जरा को प्राप्त हो जाते हैं।
पूर्वोपाजितकर्म परित्यागो निर्जरा । सा द्विप्रकारा विपाकजेतरा च । निमित्तांतरस्य समुच्चयार्थश्चशब्दः । तच्च निमित्तांतरं तपो विज्ञेयं तपसा निर्जरा चेति वक्ष्यमाणत्वात् ।
____ पहिले समयों में उपार्जन कर लिये गये कर्मों का स्थिति अनुसार परित्याग हो जाना निर्जरा है और वह निर्जरा कर्मों के यथाकाल विपाक से उपजी विपाकजा और इससे न्यारी कर्मों के विपाककाल से प्रथम ही पुरुषार्थ द्वारा बलात्कार से उदय में ले आये गये कर्मों के फल से उपजी अविपाकजा यों दो प्रकार की हैं । इस सूत्र में च शब्द का ग्रहण