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जिस ही प्रकार ज्ञानावरण आदि कर्मों की स्थिति का बाधकाभावों अनुसार युक्तियों करके निर्णय कर दिया है उस ही प्रकार आयुष्य कर्म की उपमाप्रमाण में कही गयी सागर नाम की संख्या करके तेतीस सागर उत्कृष्ट स्थिति का निर्णय कर लिया जाय यों सम्पूर्ण रूप से आठों मूलकर्मों की सर्वज्ञभाषित और गुरुपरिपाटी अनुसार चली आ रही अतीन्द्रिय स्थिति का निरूपण किया जा चुका हैं ।
कर्मणामष्टानामपि परास्थितिरिति शेषः -
अष्टमोऽध्यायः
इस कारिका में आठों भो कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति निर्णीत कर दी गयी हैं इस अर्थ के वाचक पद शेष रह गये हैं । अत: इन पदों को जोड़कर वार्तिक के पदों का अर्थसन्दर्भ लगा लेना चाहिये |
अथ वेदनीयस्य काsपरास्थितिरित्याह ।
कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति के बन्ध का निरूपण कर अब सूत्रकार जघन्य स्थिति का निरूपण करते हैं, प्रथम ही लाघव के लिये आनुपूर्वी का उल्लंघन कर स्वसंवेद्य फलवाले वेदनीय कर्म की जघन्य स्थिति क्या है ? ऐसी जिज्ञासा प्रवर्तने पर श्री उमास्वामी महाराज इस अग्रिम सूत्र को कह रहे हैं ।
परा द्वादशमुहूर्ता वेदनीयस्य ॥ १८ ॥
वेदनीय कर्म की जघन्यस्थिति तो बारह मुहूर्त है । दो घडी यानी अडतालीस मिनट काल को एक मुहूर्त कहते हैं ।
सूक्ष्म सांपराये इति वाक्यशेषः । एतदेवाह -
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इस सूत्र में “ सूक्ष्मसांपराय गुणस्थान में यह स्थिति बंध पडता है इतना वाक्य शेष रह गया है अतः सूत्र और शेष वाक्य का मिलाकर यों अर्थ कर लिया जाय कि दशवें गुणस्थान में बंध रहे वेदनीय कर्म की जघन्य स्थिति बारह मुहूर्त की पड़ती है । इस - ही बात को श्री विद्यानन्द आचार्य अगली वार्तिक द्वारा कह रहे हैं ।
अधुना वेदनीयस्य मुहूर्ता द्वादश स्थितिः । सामर्थ्यान्मध्यमा मध्येऽनेकधा संप्रतीयते ॥ १ ॥
कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति का निरूपण कर चुकनेपर अब इस समय वेदनीय