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________________ पंचम-अध्याये नानुमानाच तत्सिद्धं तद्धेतोरनभीक्षणात्। सत्त्वोत्पत्यादिहेतुश्चेन्न तत्रागमकत्वतः ॥ ६४ ॥ विरुद्धादितया तस्य पुरस्तादुपवर्णनात्। प्रपंचेन पुनर्नेह तद्विचारः प्रतन्यते ॥ ६५ ॥ दूसरे अनुमानप्रमाण से भी वह क्षणिकपना सिद्ध नहीं होता है, क्योंकि उस क्षणिकपन को साधने वाला समीचीन हेत नहीं देखा जा रहा है, यदि बौद्ध यों कहैं कि हम । साधने के लिये सत्त्वात् उत्पत्तिमत्त्वात्, कृतकत्वात्, यानी--सत्पना, उत्पत्तिसहितपना, कृतपना आदि आदि हेतु देंगे । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना क्योंकि उस क्षणिकपन को साधने में वे हेतु गमक अर्थात् साध्य के ज्ञापक नहीं हैं, विरुद्ध, वाधिन, आदि हेत्वाभास रूप से उन हेतुओं का पहिले प्रकरणों में विस्तार से वर्णन किया जा चुका है. यहाँ उनके विचार को पुनः नहीं फैलाया जाता है, अतः क्षणिकत्व हेतु से सम्पूर्ण पदार्थों में सर्वथा निष्क्रियपना सिद्ध करना उचित नहीं है। जो कि " निष्क्रियाः सर्वथा सर्वे भावा स्युः क्षणिकत्वतः " बौद्धों करके कहा गया था। कथंचिन्निष्क्रियत्वेन साध्ये स्यात्सिद्धसाधनं । तन्निश्चयनयादेशात्मसिद्धं सर्ववस्तुषु ॥ ६६ ॥ व्यवहारनयात्तेषो सक्रियत्वप्रसिद्धितः। भतिर्येषां क्रिया सैवेत्ययुक्तं सान्वयत्वतः ॥ ६७ ॥ यदि सम्पूर्ण भावों को कथंचित् कियारहितपन करके साधा जायगा तब तो हम जैन तुम्हारे ऊपर सिद्धसाधन दोष उठा देवेंगे क्योंकि निश्चयनय की अपेक्षा कथन करने से सम्पूर्ण वस्तुओं में वह क्रियारहितपना प्रसिद्ध ही है, अर्थात् निश्चयनय से सम्पूर्ण पदार्थ अपने अपने शुद्ध स्वरूप में सदा तिष्ठते हैं। जाना, आना, घटना, बढ़ना, ठहरना, ठहराना, आदि क्रियायें उसमें नहीं होती हैं, व्यवहारनय से ही उन पदार्थों के क्रियासहितपन को प्रसिद्धि होरही है, निश्चयनय तो वस्तु के शुद्ध निर्विकल्प अंशों को ग्रहण करता है, जिन वादियों के यहाँ पदार्थों के भवन यानी नवीन उत्पत्ति को ही क्रिया माना गया है, वह सर्वथा प्रसत् पदार्थों की उत्पत्ति स्वरूप क्रिया भी युक्त नहीं है क्योंकि पदार्थों के अन्वयसहितपना विद्यमान है, पूर्वकालवर्ती पर्यायों में प्रोत-प्रोत होकर द्रव्य या गुणों का अन्वय प्रविष्ट होरहा है, सर्वथा असत् का उत्पांद होना अलीक है । नित्यत्वात्सर्वभावानां निष्क्रियत्वं तु सर्वथा। यैरुक्तं तेप्यनेनैव हेतुना दूषिता हृताः ॥ ६८॥ ......
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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