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श्लोक-पातिक आत्माहिरकोहेतुरिष्टःकायादिकर्मणि ॥ .
तृणादिकर्मणीवास्तु पवनादिश्च सक्रियः ॥१७॥ (षट्पदी) ____ विशेष शक्तिशाली कारणों की अपेक्षा विचार किया जाय तो उन चाक्षुष-प्रत्यक्ष आदि ज्ञानों में स्वयं समर्थ हो रहे आत्मा की ही सिद्धि है, अन्य प्रकारों से ज्ञान नहीं उपजता है। यानी-पात्मा के बिना मृत शरीर में वत रहीं इन्द्रियां ज्ञानों को नहीं उपजा सकती हैं।
तिस ही प्रकार द्रव्य की सामर्थ्य से स्वयं क्रिया--रहित हो रहे भी धर्म आदिकों को दूसरे. जीव आदिकों की गति आदि में क्रिया का केवल सामान्य कारणपना रहो।
यदि यहां कोई वैशेविक अवसर पाकर यों बोल उठे कि इस प्रकार तो क्रिया--रहित ही आत्मा को भी शरीर में क्रिया का हेतुपना आ पड़ेगा ( प्राप्त हो जावेगा) अर्थात् क्रिया-रहित धर्म मादिक जैसे दूसरे पदार्थों में क्रियाओं को कर देते हैं, उसी प्रकार क्रिया-रहित जीव भी शरीरमें क्रिया को उपजा देगा, फिर 'शरीरे क्रिया-हेतुत्व' हेतु आप जैनों ने आत्मा में क्रिया-सहितपन को क्यों साधा था ? आचार्य कहते हैं कि यह नहीं समझ बैठना क्योंकि सर्वथा भी स्वयं क्रियाओं से रहित हो रहे आत्मा को मानने पर प्रमाणों से विरोध पाता है जब कि शरीर आदि की क्रिया करने में प्रात्मा प्रेरक कारण इष्ट किया गया है जैसे कि तृण पत्ता आदि की क्रियाओं में वायु, जल, विजली मादिक प्रेरक कारण माने गये हैं, दूसरों में क्रियाओं के प्रेरक कारण पवन आदिक क्रिया--सहित ही हैं तो उसी प्रकार आत्मा भी क्रिया--सहित होना चाहिये तभी शरीर आदि में क्रिया करने का वह प्रेरक-हेतु हो सकता है।
वीयांतरायविज्ञानावरणच्छेदभेदतः।
सक्रियस्यैव जीवस्य ततोंगे कर्महेतुता ॥१८॥
तिस कारण से सिद्ध हुआ कि वीर्यान्तराय कर्म और ज्ञानावरण कर्म के (का) विशेष क्षयोपशम हो जाने से क्रियासहित हो रहे ही जीव को शरीर में क्रिया का हेतुपना प्राप्त होता है।
हस्ते कर्मात्मसंयोगप्रयत्नाभ्यामुपेयते । यैस्तेपि च प्रतिक्षिप्तास्तयोस्तच्छक्त्ययोगतः ॥१६॥ निष्कियो हि यथात्मैषां क्रियावद्वसदृश्यतः। कालादिवत्तथैवात्मसंयोगः सप्रयलकः॥२०॥