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पंचम-अध्याय
विना नहीं बन सकता है। जैसे कि वैशेषिकों के यहां पर द्रव्य, गुण, कर्म में मुख्य सत्ताको माने विना कहीं सामान्य, विशेष, आदि में उपचरित ( गौण ) सत्ता नहीं बन पाती है इस कारण लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेश पर भिन्न भिन्न काल द्रव्य की सिद्धि होजाती है क्योंकि अन्यथानुपपत्ति की सिद्धि होजाने से काल के उस नाना द्रव्यपन को साधने वाला हेतु निर्दोष है। नाना द्रव्यपनसे पुन: काल का अव्यापकपना सध जाता है । अतः आत्मा को व्यापकपना साधने में दिया गया वैशेषिकों का " द्रव्य होते हुये अमूर्तपना " हेतु काल द्रव्य करके व्यभिचारी है। स्वसम्वेदन प्रत्यक्ष से भी आत्मा का अपने अपने शरीर--परिमाण वाले का ही अनुभव होरहा है।
___ कालस्यासर्व गतत्वेऽनिष्टानुषंगपरिजिहीर्षया प्राह । ___ काल को अध्यापक द्रव्य मानने पर अनिष्ट का प्रसंग होजायगा, यों वैशेषिकों के अभिप्राय के परिहार करने की इच्छा करके ग्रन्थकार अगली वार्तिक को सुन्दर कह रहे हैं।
कालोऽसर्वगतत्वेन क्रियावान्नानुषज्यते।
सर्वदा जगदेकैकदेशस्थत्वात् पृथक् पृथक् ॥६॥ कणाद मत-अनुयायी कहते हैं, कि काल को यदि असर्वगत द्रव्य माना जायगा तब तो इस हेतु करके परमाणु. मन, डेल, गोली प्रादि के समान काल को भी क्रियावान् बनने का प्रसंग आ जावेगा किन्तु हम और जैनभी कालको क्रिया-रहित मानते हैं प्राचार्य कहते हैं कि यह प्रसंग नहीं पाता है क्योंकि सदा लोक के एक एक प्रदेश पर पृथक् पृपक् होकर कालाणु स्थित होरहे हैं । बात यह है कि कालाणुओं के अतिरिक्त सुमेरु पर्वत, ध्रु वतारा, मनुष्य लोक से बाहर के सूर्य चन्द्र विमान, अन्य भी विले, भवन, कुल-पर्वत, आदिक अव्यापक पदार्थ जहाँ के तहाँ नियत होरहे स्थित हैं, हलन, चलन, नहीं करते हैं। उसी प्रकार असंख्यात कालाणुयें भी अनादि काल से अनन्त काल तक अपने अपने नियत स्थानों पर अडिग होकर व्यवस्थित हैं, उन में क्रिया होने का अन्तरंग कारण सर्वथा नहीं है। कोई वेगयुक्त पदार्थ कालाणुप्रो में आधात भी करै तो वह अमूर्त कालाणुओं में से अव्याघात होकर परली ओर निकल जायगा, जैसे से कि स्वच्छ कांच चलाया, फिराया, गया फैल रहो धूप को हिला, डुला, नहीं सकता है, धूप वहां की वहां ही रहती है, कांच से उसका व्याघात या देशान्तर कर देना नहीं हो पाता है।
क्रियावान् कालोऽसर्वगतद्रव्यत्वात् पुद्गलवदित्यनिष्टानुषजनमयुक्तं, सर्वदा लोकाकाशकैकप्रदेशस्थत्वेन पृथक्-पृथक् कालाणूनां प्रसाधनात् । ते हि प्रत्याकाशंप्रदेशं प्रतिनियतस्वभावस्थितयोऽभ्युपगन्तव्याः परीक्षकैरन्यथा व्वहारकालभेदप्रतिनियतस्वभावस्थित्यनुपपत्तेः कदाचित्तत्परावृत्तिप्रसंगात् ।