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________________ ६६० श्लोक- वार्तिक इति श्री विद्यानन्दि- आचार्यविरचिते तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिकालंकारे सप्तमोध्यायः समाप्तः ॥७॥ इस प्रकार अब तक अनेक गुणगरिष्ठ पूज्य श्री विद्यानन्द स्वामी आचार्य के द्वारा विरचित तत्त्वार्थश्लोकवार्त्तिकालंकार नामक महान् ग्रन्थ में सातवां अध्याय पूर्ण हुआ । सातवें अध्याय का सारांश इस सातवें अध्याय के प्रकरणों की सूची इस प्रकार है कि छठे और सातवें में आस्रवतत्त्व के निरूपण करने की संगति अनुसार पुण्यास्रव का निरूपण करने के लिये प्रथम ही व्रत का सिद्धान्त लक्षण किया गया है । बुद्धिकृत अपाय से ध्रुवत्व की विवक्षा कर सूत्र में अपादान प्रयुक्त पंचमी विभक्ति का समर्थन कर संवर से पृथक प्ररूपण का उद्देश्य बताते हुये रात्रि भोजनविरति का भावनाओं में अन्तबता दिया है। आत्मा की एक देश विशुद्धि और सर्वांग विशुद्धि नामक परिणतियों के अनुसार अणुव्रतों महात्रतों की व्यवस्था कर व्रतों की पच्चीस भावनाओं का युक्तिपूर्ण समर्थन किया है । भाव्य, भावक, भावनाओं, का दिग्दर्शन कराते हुये सामान्य भावनाओं में हिंसादि द्वारा अपाप और अवद्य देखपुष्टिकरहिंसादि में दुःखपन साध दिया है। मैत्री, प्रमोद आदि के व्यतिकीर्ण रूप से सामञ्जस्य को दिखलाते हुये संवेग वैराग्यार्थ भावना को सुन्दर हृदयग्राही शब्दों द्वारा निर्णीत किया है । भावना कोई कल्पना नहीं किन्तु वस्तुपरिणति अनुसार हुये आत्मीय परिणाम हैं पश्चात् व्रतों के प्रतियोगी हो रहे हिंसा आदि का लक्षण करते हुये प्राणव्यपरोपण को हिंसा बताकर प्राणी आत्मा के दुःख हो जाने प्रयुक्त पापबंध होना बखाना गया है। नैयायिक, सांख्य, आदि के यहाँ प्राणव्यपरोपण होने पर प्राणी का व्यपरोपण नहीं सधता है। सूत्र की मनीषा भावहिंसा और द्रव्यहिंसा दोनों का लक्षण करने में तत्पर है। बौद्ध या चार्वाकों के यहाँ हिंसा, या अहिंसा, नहीं बनती है “प्रमत्तयोग " पद से अनेक तात्पर्य पुष्ट होते हैं । झूठ के लक्षण में भी प्रमादयोग लगाना अत्यावश्यक है । अप्रशस्त कहने को झूठ माना गया है यह बहुत बढ़िया बात है । अपने या दूसरे के सन्ताप का कारण जो वचन है वह सब असत्य है और हिंसा आदि के निषेध करने में प्रवर्त रहा कैसा भी वचन हो सत्य ही है पाप का कार्य या कारण जो हिंसापूर्ण वचन है वह असत्य है | अतः अपराधी जीव अपने को बचाने के लिये या स्वार्थी मनुष्य अभक्ष्यभक्षण, परस्त्रीसेवन आदि के लिये यदि मनोहर भी वचन बोलेगा तो वह असत्य ही माना जावेगा, निकृष्ट स्वार्थों से भरा हुआ वचन झूठ है जब कि परोपकारार्थ झूठ भी एक प्रकार का सत्य है । न्यायवान् राजा या राजवर्ग मात्र भविष्य में अहिंसा की रक्षा के लिये दण्डविधान करते हैं जो कि अपराधी के अभ्यन्तर परिणामों और अपराधों की अपेक्षा से ताड़न, वध, बंधन, कारावास, जुरमाना, आदि करना पड़ता है। किसी किसी
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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