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श्लोक-वार्तिक
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कास्तेषामतिक्रमाः । पंच कुतोऽतीचरा इत्याह
क्षेत्र वास्तु आदिक पदों के दो दो पदों का द्वंद्व समास हो गया है। कुप्य से पहिले आठ पदों के चार युगलों का न्यारा न्यारा समाहारद्वंद्व कर लिया जाय । "क्षेत्र' च वास्तु च क्षेत्रवास्तु” खेत और घर का समाहार कर एकवचन पद क्षेत्रवास्तु बना लिया गया है “हिरण्यं च सुवर्ण च" यों रुपया आदि और सोने का समाहार कर 'हिरण्यसुवर्ण' पद एकवचन कर दिया है ( समाहारे एकवत् स्यात् ) । “धनं च धान्यं च" यों का द्वंद्व कर गाय आदिक धन और धान गेहू आदिक धान्यों को कह रहा "धनधान्यं" पद बना लिया जाता है । “दासी च दासश्च" यों ( गवाश्वप्रभृतीनि च ) सूत्र करके समास कर टहलुआ, टहनी स्त्री पुरुषों को कह रहा " दासीदास" पद साधु बन जाता है। पुनः "क्षेत्रवास्तु च हिरण्यसुवर्ण च धनधान्यं च दासीदासं च कुप्यं च" यों क्षेत्रवास्तु-हिरण्यसुवर्ण-धनधान्य- दासीदासकुप्यानि एतेषां प्रमाणानां अतिक्रमाः” यों निरुक्ति कर सूत्र वाक्य बन जाता है। तीव्रलोभ का चारों ओर आवेश हो जाने से इनके प्रतिज्ञात प्रमाणों का अतिरेक होना संभव जाता है। उन क्षेत्र आदिकों के पाँच अतिक्रम अतीचार हैं । यहाँ कोई आगमोक्त विषय का तर्क द्वारा निर्णय करने के लिये आरेका उठाता है कि परिग्रह परिमाण व्रत के ये सूत्रोक्त पाँच अतीचार भला किस युक्ति से सिद्ध हो जाते हैं ? बताओ। ऐसी निश्चिकीषा प्रवर्तने पर ग्रन्थकार अग्रिम वार्त्तिक को स्पष्टीकरणार्थ कह रहे हैं ।
क्षेत्रवास्त्वादिषूपात्त प्रमाणातिक्रमाः स्वयं । पंच संतोष निर्घातहोतवत्यव्रतस्य ते ॥ १ ॥
क्षेत्र, वास्तु, आदिक में ( पक्ष ) स्वयं प्रतिज्ञा पूर्वक ग्रहण किये प्रमाण के ये पाँच अतिक्रम हो जाते हैं ( साध्य ) क्योंकि ये पाँच अतिक्रम संतोष का एकदेश से घात करने में कारण हो रहे हैं ( हेतु ) अतः पाँच व्रतों के अन्त में पड़े हुये परिग्रहपरिमाणव्रत के वे क्षेत्रवास्तु अतिक्रम आदिक पाँच अतीचार हैं । संतोषनिर्घातानुकूलकारणत्वाद्धि तदतीचाराः स्युर्न पुनः समर्थकारणत्वात् पूर्ववत् ।
पूरे संतोष के घातने में अनुकूल कारण हो जाने से उस परिग्रह परिमाणव्रत के ये पांच अतीचार नियम से संभव जायेंगे किन्तु फिर समूल चूल संतोष का घात करने में समर्थ कारण होने से ये अतीचार नहीं हैं जैसे कि पहिले सम्यग्दर्शन या अहिंसा आदि व्रतों में समझा दिया गया है अर्थात् एक देश व्रत की रक्षा और कुछ अंगों में व्रत का भंग हो जाने से पहिले अतीचार निर्णीत कर दिये गये हैं उसी प्रकार संतोष की भित्ति पर जो परिग्रहों का परिमाण किया था उस संतोष का जो परिपूर्णरूप से घात कर देते हैं ऐसी आयक के साथ हो रहीं गृद्धियां या उच्छृंखल होकर मार परिग्रहों को इकट्ठा करते रहना अतीचार नहीं है किन्तु अनाचार है । और संतोष का जो किंचित् भी घात नहीं करते हैं ऐसे दान, पूजन, आदि भी अतीचार नहीं प्रत्युत संतोषवर्धक और परिमाणव्रत के पोषक गुण हैं । ये क्षेत्र वास्तु अतिक्रम आदिक पांच तो संतोष को घातने में एकदेश अनुकूल हो रहे हैं अतः अतीचार मान लिये गये हैं ।
अथ दिग्विरतेः केऽतिक्रमाः पञ्श्चेत्याह
पांच अणुव्रतों के अतीचार कहे सो जाने अब इस के अनन्तर सात शीलों में से पहिली दिवि - रति के पांच अतीचार कौन हैं ? ऐसी जिज्ञासा प्रवर्तने पर सूत्रकार महाराज इस अग्रिम सूत्र को कह रहे हैं।