________________
श्लोक-वार्तिक सद्वेद्यचारित्रमोहोदयाद्विवहनं विवाहः परस्य विवाहस्तस्य करणं परविवाहकरणं, अयनशीलेवरी सैव कुत्सिता इत्वरिका तस्यां परिगृहीतायामपरिगृहोतायां च गमनमित्वरिकापरिगृहीतापरिगृहीतागमनं, अनंगेषु क्रीडा अनंगक्रीडा, कामस्य प्रवृद्धः परिणामः कामतीव्राभिनिवेशः । दीक्षितातिबालातिर्यग्योन्यादीनामनुपसंग्रह इति चेन्न, कामतीव्राभिनिवेशग्रहणात् सिद्धेः । त एते चतुर्थाणुव्रतस्य कुतोऽतोचारा इत्याह
सातावेदनीय कर्म और चारित्रमोह (माया, लोभ, रति, हास्य, वेद ) कर्म का उदय हो जाने से विवाह क्रिया द्वारा बंध जाना विवाह है, पर का जो विवाह सो परविवाह है उस परविवाह का करना परविवाहकरण है यों परविवाह शब्द की निरुक्ति कर दी गई है। परपुरुष के निकट गमन करने की टेव को धारने वाली स्त्री इत्वरी है। इत्वरी शब्द से कुत्सिता इत्वरी यों खोटे अर्थ में क प्रत्यय कर देने पर वही कुत्सिता इत्वरी इत्वरिका कही जाती है। उस परिगृहीत हो रही इत्वरिका में और किसी नियत भर्ता करके नहीं परिगृहीत हो रही इत्वरिका में गमन करना इत्वरिकापरिगृहीतापरिगृहीतागमन है। काम सेवन के अंगों से भिन्न अंगों में क्रीड़ा करना अनंगक्रीडा है। रति क्रिया का अतिशय करके बढ़ रहा परिणाम कामतीव्राभिनिवेश है। यहाँ कोई आक्षेप करता है कि दीक्षा ले जा चुकी स्त्री या छोटी अवस्था की अतिबाला लड़की अथवा छिरिया, हरिणी आदि तिर्यश्विनी एवं काष्ठ, चित्र, रबड़, रुई आदि की बनी हुई अनेक प्रकार की अचेतन स्त्रियां अथवा स्त्रियों की अपेक्षा से तिर्यञ्च पुरुष, दीक्षित, कृत्रिम पुरुष चिह्न आदि का इस सूत्र में उपलक्षण रूप से भी संग्रह नहीं हो सका है ऐसी दशा में दीक्षिता आदि आदि के साथ क्रीड़ा करने को किस दोष में गिना जायगा ? ग्रन्थकार कहते हैं यह तो न कहना क्योंकि पांचवें अतीचार कामतीव्राभिनिवेश का ग्रहण कर देने से उनके संग्रह की सिद्धि हो जाती है। कामकी तीव्रता से ही अपनी दीक्षिता स्त्री अथवा अपने लिये कल्पित की गई अतिबाला कन्या एवं तिर्यचिनी आदि त्यागने योग्य स्त्रियों में प्रवृत्ति होती है । यों ये पाँच अतीचार कुछ व्रत की रक्षा का अभिप्राय रखकर व्रत का भंग कर देने से गृहस्थ के संभव जाते हैं। यहां कोई तर्क कर रहा है कि प्रसिद्ध हो रहे ये पांच अतीचार भला चौथे अणुव्रत के किस युक्ति से सिद्ध कर लिये जांय ? ऐसी तर्कणा उपजने पर ग्रन्थकार अग्रिम वार्तिक को कहते हैं।
चतुर्थस्य व्रतस्यान्यविवाहकरणादयः
पंचतेऽतिकमा ब्रह्मविघातकरणक्षमाः ॥१॥ __ अन्यविवाहकरण आदिक ये पाँच ( पक्ष ) चौथे व्रत के अतीचार हैं ( साध्य ) क्योंकि ब्रह्मचर्याणुव्रत का बहुभाग विघात करने में समर्थ हो रहे हैं ( हेतुदल ) । यो अनुमान प्रयोग बना कर उक्त सूत्र के प्रमेय को प्रमाणसंप्लव द्वारा पुष्ट कर दिया है।
स्वदारसंतोषव्रतविहननयोग्या हि तदतीचारा न पुनस्तद्विघातिन एव पूर्ववत् ।।
पूर्व में जैसे अहिंसाणुव्रत, सम्यग्दर्शन आदि के अतीचार उन को माना गया है जो कि व्रतों की सर्वाङ्ग विशुद्धि होने के कारण नहीं हैं और व्रत का सर्वांग विनाश करने वाले भी नहीं हैं जो विशद्धि के कारण हैं वे तो व्रतों के संरक्षक हैं जो व्रतों के विनाशक हैं वे अनाचार या अविरतिस्वरूप हैं हां व्रतों को मलिन कर देने वाले अतीचार कहे जाते हैं । उसी प्रकार स्वदारसंतोषव्रत में विघ्न करने