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________________ श्लोक-पातिक यदि वैशेषिक यों कहैं कि नष्ट होरहीं या उत्पन्न होरहीं व्यक्तियों से निराली अन्य विद्यमान व्यक्तियों में वे ही तो वैसादृश्य, गुण, क्रिया, आदि नहीं देखे जा रहे हैं, जो कि नष्ट या उत्पन्न व्यक्तियों में हैं किन्तु उन नष्ट या उत्पन्न व्यक्तियों में वर्त रहे वैसादृश्य आदिसे दूसरे भिन्न वैसा दृश्य आदि का ही अन्य व्यक्तियों में दर्शन होरहा है, अतः ये अनित्य हैं, यों कहने पर तो हम जैन कहते हैं कि तब तो न्यारे न्यारे वैसादृश्य आदि के समान फिर सादृश्य, समवाय, आदि भी निराले ही क्यों नहीं होजायंगे क्योंकि तिस प्रकार न्यारे सादृश्य या निराले वैसादृश्य आदि की प्रतीति होने का कोई अन्तर नहीं है तिस कारण सिद्ध होता है कि द्रव्य की पर्यायविशेष ही क्रिया है, द्रव्य से निराला स्वतंत्र तत्त्व कोई कर्म पदार्थ नहीं है। गुणादीनां क्रियात्वप्रसंग इति चेन्न, ततो विशेषलक्षणसभावात् । द्रव्यस्य । देशांतरप्राप्तिहेतुः पर्यायः क्रिया न सर्वः । सर्वत्र सर्वदा कमान स्यादिति चेन्न, उभर्या : मित्तापेक्षवात् क्रियायास्तद्भाव एव मावात् पर्यायांतरवत् । निष्क्रांतानि क्रियायाः निष्वि... याणि धर्माधर्माकाशानि । कुत इत्याह । वैशेषिक कहते हैं कि द्रव्य की पर्याय को यदि क्रिया कहा जायगा तब तो गुण या सामान्य प्रादि को क्रिया होजाने का प्रसंग आजायगा । जैन सिद्धान्त अनुसार गुण आदि भी द्रव्य के पर्याय हैं, प्राचार्य कहते हैं कि यह तो नहीं कहना क्योंकि उस क्रिया से गुण आदि में विशेष लक्षणों का सद्भाव पाया जाता है। द्रव्य को प्रकृत देश से अन्य देशान्तर की प्राप्ति का कारण होरहा द्रव्य की पर्याय तो क्रिया है, द्रव्य की शेष सभी पर्यायें क्रिया नहीं हैं । यदि यहां कोई आक्षेप करे कि जब क्रिया द्रव्य का अन्तरंग परिणाम है तो सर्व देशों में सभी कालों में द्रव्य की देशान्तर प्राप्ति जो होती रहनी चाहिये सो किस कारण से नहीं होती है बतायो ? आचार्य कहते हैं कि यह तो नहीं कहना क्योंकि द्रव्य की क्रिया नामक परिणति अन्तरंग, वहिरंग, दोनों निमित्तों की अपेक्षा रखती है जब अन्तरंग, वहिरंग, कारणों की योग्यता प्राप्त होगी तब उसके होने पर ही तो क्रिया की उत्पत्ति होसकेगी जैसे कि द्रव्य की अन्य पर्यायें सर्वत्र सर्वदा नहीं होती फिरतीं हैं किन्तु नियत कारणों के अनुसार कचित्, कदाचित्, ही होती हैं । यहाँ तक यह निर्णीत कर दिया गया है कि परिस्पन्द स्वरूप क्रिया से निष्क्रान्त हो रहे धर्म, अधर्म, और आकाश द्रव्य निष्क्रिय हैं । किस कारण से ये तीन द्रव्य क्रियाओं से रहित हैं बतायो ? इस प्रकार जिज्ञामा हीने पर ग्रन्थकार वात्तिक द्वारा उत्तर कहते हैं निष्क्रियाणि च तानीति परिस्पंदविमुक्तितः। सूत्रितं त्रिजगद्व्यापिरूपाणां स्पंदहानितः ॥ १॥
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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