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________________ श्लोक- वार्तिक चारित्रमोहनीय कर्म का उदय होने पर राग परिणति में आसक्त हुये स्त्री और पुरुष की परस्पर स्पर्श करने के लिए इच्छा करना मिथुन है और मिथुन का कर्म मैथुन तो अब्रह्म कहा जाता है । स्त्री और पुरुष की इच्छा उपलक्षण है नपुंसक जीवों के भी माया, लोभ, रति, हास्य, वेद, इन चारित्र मोहनीय कर्मों का उदय या उदीरणा हो जाने पर मैथुनाभिलाषायें उपजती हैं जो कि इष्ट पाक की अग्नि के समान तीव्र वेदना को लिये हुये हैं । कोई कोई पण्डित नपुंसकों को स्त्री नपुंसक या पुरुष नपुंसक यों गिना कर पुरुषों या स्त्रियों में ही गर्भित कर लेते हैं । अतः प्रमादयोग से स्त्री, पुरुष, नपुंसक जीवों के रमण करने की अभिलाषा प्रयुक्त हुआ व्यापार मैथुन समझा जायगा । एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय आदि जीवों के भी अपने अपने इन्द्रियजनित भोगों की अभिलाषा की अपेक्षा मैथुन मान लेना चाहिये अन्यथा पांचवें गुणस्थान तक सभी संसारी जीवों में पायी जाने वाली मैथुन संज्ञा के अभाव हो जाने का उन में प्रसंग आवेगा । एकेन्द्रिय, विकलत्रिय, असंज्ञी जीव या सन्मूर्च्छनपंचेन्द्रिय जीव भी मैथुन पाप में आसक्त हो रहे हैं। ५८० मिथुनस्य भावो मैथुनमिति चेन्न, द्रव्यद्वयभवनमात्र प्रसंगात् । मिथुनस्य कर्मेति चेन्न पुरुषद्वय निर्वत्य क्रियाविशेषप्रसंगात् । स्त्रीपुंसयोः कर्मेति चेन्न, पच्यादिक्रियाप्रसंगात् । स्त्रीपुंसयोः परस्परगात्रश्लेषे रागपरिणामो मैथुनमिति चेन्न, एकस्मिन्नप्रसंगात् । उपचारादिति चेन्न, मुख्यफलाभावप्रसंगात् । ततो न मैथुन शब्दादिष्टार्थसंप्रत्यय इति कश्चित् ॥ यहाँ कोई ( कश्चित् ) आचार्य महाराज से मैथुन शब्द का अथ कराने के लिये चोद्य उठा रहा है कि प्रथम ही यदि यहाँ कोई मैथुन का यों अर्थ करें कि - मिथुन यानी स्त्री पुरुष दोनों या अन्य कोई दोनों पदार्थों का जो भाव है वह मैथुन है । कश्चित् या आचार्य कहते हैं कि यह तो नहीं कहना क्योंकि यों तो चाहे किन्हीं भी दोनों द्रव्यों के परिणाम होने मात्र का प्रसंग आ जावेगा। उदासीन अवस्था बैठे हुये राग रहित दोनों स्त्री, पुरुषों की कन्याविवाह चिन्ता, भोजन, वस्त्रचिंता, मुनिदान विचार आदि को भी मैथुन हो जाने का प्रसंग आ जावेगा। जो कि इष्ट नहीं है । पुनः कोई चोद्य उठाता है कि मिथुन का कर्म मैथुन कह दिया जाय । कश्चित् या ग्रन्थकार कहते हैं कि यह मंतव्य भी तो ठीक नहीं पड़ेगा क्योंकि दो पुरुषों कर के बनाने योग्य किसी भी क्रिया विशेष को मैथुन हो जाने का प्रसंग आवेगा । क्वचित् दो विद्यार्थी मिल कर पाठ लगा रहे हैं, दो कहार डोली को ढो रहे हैं, दो मल्ल लड़ रहे हैं, स्त्री, पुरुष, दोनों धर्म चर्चा कर रहे हैं, ये क्रियायें तो मैथुन नहीं हैं । पुनः कोई सम्हल कर आक्षेप करता है कि स्त्री और पुरुष का जो कर्म है वह मैथुन है । कश्चित् या आचार्य समझाते हैं कि यह तो ठीक नहीं है क्योंकि स्त्री और पुरुष यदि मिलकर कदाचित् या यात्रा में रसोई बनाते हैं, दोनों देव वंदना करते हैं, तीर्थ यात्रा करते हैं, यों पाक करना आदि क्रियायें भी मैथुन हो जावेंगी जो कि मैथुन नहीं मानी गयी हैं । पुनरपि कोई अपनी पण्डिताई दिखलाता हुआ व्याकरण की निरुक्ति अनुसार मैथुन का लक्षण करता है कि स्त्री और पुरुषों का परस्पर में शरीर का गाढ आलिंगन होते संते जो राग परिहुई है वह मैथुन है । कश्चित् पंडित या ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो ठीक नहीं, कारण कि अव्याप्ति दोष है अकेले स्त्री या पुरुष में मैथुन परिणाम नहीं हो सकने का प्रसंग आजावेगा अर्थात् जब कि हाथ, पांव या अन्य पुद्गलों के संघट्ट आदि करके कुशील सेव रहे या खोटे भाव कर रहे अकेले पुरुष अथवा स्त्री में भी मैथुन परिणाम इष्ट किया गया है वह मैथुन सिद्ध नहीं हो सकेगा । यदि इस पर कोई यों समाधान करै कि जिस प्रकार चारित्र मोहनीय कर्म का उदय हो जाने पर कामवेदना से पीडित हो रहे
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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