SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 599
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५७८ श्लोक-वार्तिक क्या करें एतावता चोरी नहीं कही जा सकती है । सिनेमा, नाटक के दृश्य, गोप्यअंग इनके रूपों के देख लेने में भी प्रमादयोग हो जाने पर चोरी लग बैठेगी अन्यथा नहीं। देववंदनादिनिमित्तधर्मादानात् स्तेयप्रसंग इति चेन्न, उक्तत्वात् तत्र दानादानव्यवहारासंभवाद्धर्मकारणानुष्ठानादिग्रहणाद्धर्मग्रहणोपचाराद्वा तथा व्यवहारसिद्धरिति । प्रमत्ताधिकारत्वादन्यत्राप्रसंगः स्तेयस्य । देववंदनादौ प्रमादाभावात्तन्निमित्तकस्य धर्मस्य परेणादत्तस्याप्यादाने कुतः स्तेयप्रसंगः ? एतदेवाह यदि पुनः कोई कटाक्ष करै कि देव वंदना, तीर्थ यात्रा, जिन पूजन, स्तोत्र श्रवण आदि निमित्तों करके धर्म का ग्रहण करने से तो चोरी कर लेने का प्रसंग आता है । आचार्य कहते हैं कि यह तो नहीं कहना क्योंकि इसका उत्तर हम कह चुके हैं। वहाँ पुण्यप्राप्ति या धर्मलाभ में दान और आदान के व्य हार का असम्भव है। धर्म के कारण हो रहे आयतन या धर्म के अनुष्ठान आदि का ग्रहण कर लेना होने से अथवा कारण में कार्य का उपचार कर धर्म ग्रहण के उपचार से तिस प्रकार धर्म के लेने के व्यवहार की यों सिद्धि हो जाती है। एक बात यह भी है कि "प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा” इस सूत्र से यहाँ प्रमत्त योग का अधिकार चला आ रहा है अतः अन्यत्र यानी जहाँ प्रमादयोग नहीं है वहाँ उसके ग्रहण कर लेने पर भी चोरी कर लेने का प्रसंग नहीं आता है । देव वंदना आदि में आत्मा का प्रमाद नहीं है अतः उन देववंदना आदि को निमित्त पाकर हुये धर्म को यद्यपि दूसरों ने दिया नहीं है तो भी उसके ग्रहण कर लेने में भला कैसे स्तेय का प्रसंग आ सकता है ? अर्थात् नहीं। इस ही सिद्धान्त को ग्रन्थकार स्वयं वार्तिकों द्वारा स्फुट कह रहे हैं। प्रमत्तयोगतो यत्स्याददत्तादानमात्मनः । स्तेयं तत्सूत्रितं दानादानयोग्यार्थगोचरं ॥१॥ तेन सामान्यतो दत्तमाददानस्य सन्मुनेः । सरिन्निझरणाद्यभः शुष्कगोमयखंडकं ॥२॥ भस्मादिवा स्वयं मुक्तं पिच्छालाबूफलादिकं । प्रासुकं न भवेत्स्तेयं प्रमत्तत्वस्य हानितः ॥३॥ देने और लेने योग्य अर्थों के विषय में हो रहा जो आत्मा के प्रमत्तयोग से अदत्त का आदान करना है वह सूत्रकार ने इस सूत्र में चौर्य कहा है। तिस कारण सामान्य रूप से सब के लिये दिये जा चुके नदी जल आदि को ग्रहण कर रहे श्रेष्ठ मुनि के चोरी का दोष नहीं लगेगा क्यों कि इनको लेने में प्रमाद की हानि है, यदि प्रमादयोग से नदी जल आदि को लिया जाता तो चोरी लग बैठती। नियत व्यक्तियों के स्वामित्व को पा रहे नदी जल, कुल्याजल, को ले लेने से चोरी हो ही जाती है। किसी अनुपाय विशेष अवस्था में मुनि के लिये नदी, झरना, बावड़ी आदि के जल को ले लेने का विधान होगा। इसी प्रकार बहिरंग शुद्धि के लिये सूखे अरणा गोबर के टुकड़े को ग्रहण करने का भी विधान क्वचित होगा । भस्म, मट्टी आदि भी लिये जा सकते हैं अथवा मयूर या किसानों द्वारा स्वयमेव छोड़ दिये गये पिच्छ, तुम्बी फल, शिलापट्ट आदिक पदार्थ भी ले लिये जाँय तो चोरी नहीं है किन्तु ये सब प्रासुक यानी जीव रहित होने चाहिये। सचित्त हो रहे जल, गोबर, पिच्छ, तुम्बी, मट्टी, तृण आदि को मुनि नहीं ले सकते हैं।
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy