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श्लोक-वार्तिक
शून्यं मोचितमावासमधितिष्ठामि शुद्धिदं । परोपरोधं मुंचामि भैक्ष्यशुद्धिं करोम्यहं ॥१॥ सधर्माभिः समं शश्वद विसंवादमाद्रिये । अस्तेयातिक्रमध्वंस हेतुतद्व्रतवृद्धये
॥२॥
मैं आत्मा की विशुद्धि को देने वाले शून्य स्थान और छोड़े हुये स्थानों में अधिष्ठित होता हूँ, दूसरों के साथ उपरोध करने को छोड़ता हूँ, मैं भिक्षाओं के समूह की शुद्धि को कर रहा हूँ, समान धर्म वाले जीवों के साथ सदा ही अविसंवाद रखने का आदर करूँ, इस प्रकार अचौर्य व्रत का अतिक्रमण करने वाली पापक्रियाओं के ध्वंस का हेतु हो रहे उस अचौर्य व्रत की वृद्धि के लिये मैं उक्त पांच भावनाओं को यों भावता हूँ ॥
इत्येवं बहुशः समीहनात् ॥
यों इस प्रकार बहुत बार समीचीन विचार रखन से व्रती पुरुष का अचौर्य व्रत दृढ़ हो जाता है । चतुर्थस्य व्रतस्य कास्ता भावना इत्याह
चौथे ब्रह्मचर्य व्रत की वे पांच भावनायें कौन सी हैं ? इस प्रकार बुभुत्सा प्रवर्तने पर सूत्रकार अग्रिम सूत्र को कहते हैं ।
स्त्रीरागकथाश्रवणतन्मनोहरांगनिरीक्षणपूर्वरतानुस्मररणवृष्येष्टरसस्वशरीरसंस्कारत्यागाः पंच ॥७॥
स्त्रियों में राग को उपजाने वाली कथाओं को सुनने का त्याग करना, उन स्त्रियों के या पुरुषों के मनोहर अंगों के निरीक्षण का परित्याग करना, पूर्वकाल में भोगे जा चुके भोगों के अनुस्मरण का परित्याग कर देना, वृषीकरण, बाजीकरण आदि विधियों का त्याग कर उन्मादक वृष्यरस या इन्द्रियों द्वारा अनुराग बढ़ाने वाले इष्ट रस का त्याग कर देना, तथा अपने शरीर संस्कार का त्याग कर देना ये पांचभावनायें ब्रह्मचर्य व्रत को स्थिर करने के लिये हैं ।
कथमित्युपदर्शयति
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उक्त भावनायें किस प्रकार भावित हुयीं भला ब्रह्मचर्य व्रत को दृढ़ कर देतीं हैं ? इस का निर्णय करने के लिये ग्रन्थकार उपपत्ति को दिखलाते हैं ।
स्त्रीणां रागकथां जह्यां मनोहार्यंगवीक्षणं । पूर्वरतस्मृतिं वृष्यमिष्टं रसम संशयम् ॥१॥ तथा शरीरसंस्कारं रतिचेतोऽभिवृद्धिकं । चतुर्थव्रतरक्षार्थं सततं यतमानसः ॥ २॥