________________
194
श्लोक-वार्तिक मानुषस्यायुषो ज्ञेयमल्पारंभत्वमासूवः । मिश्रध्यानान्वितमल्पपरिग्रहतया सह ॥१॥ धर्ममात्रेण संमिश्रं मानुषीं कुरुते गतिं । सातासातात्मतन्मिश्रफलसंवर्तिका- हि सा ॥२॥ धर्माधिक्यात्सुखाधिक्यं पापाधिक्यात्पुनर्नृणां।
दुःखाधिक्यमिति प्रोक्ता बहुधा मानुषी गतिः ॥३॥ अल्पपरिग्रह से युक्तपने करके सहित होरहा और केवल धर्म आचरण से भले प्रकार से मिले हुये अशुभ और शुभ इन मिश्र ध्यानों से अन्वित होरहा जो अल्पआरंभ सहितपना है वह मनुष्यों सम्बन्धी आयुः कर्म का आस्रावक है। दया, दान, परोपकार आदि धर्म मात्र करके मिल रहा वह अल्प आरंभ और अल्प परिग्रह जीव की मनुष्य सम्बन्धी गति को कर देता है। जिस कारण कि वह मनुष्यगति साता स्वरूप और असातास्वरूप उस मिले हुये फल की संपादिका है। धर्म और अधर्म के मिश्रणों में यदि धर्म की अधिकता हो जाती है तो उससे राजा, सेठ, मल्ल, विद्वान् , न्यायाधीश, जमीदार आदि मनुष्यों के सुख की अधिकता हो जाती है और दुःख न्यून हो जाता है। हां उस मिश्रण में पाप की अधिकता हो जाने से तो फिर मजूर, दास, विधवा, रोगिणी, अधमर्ण आदि मनुष्यों के दुःख को अधिकता हो जाती है। सुख मंद हो जाता है। यों मनुष्य सम्बन्धी गति बहुत प्रकार की उत्तम, मध्यम, जघन्य श्रेणी के सुख दुःख वाली भले प्रकार कह दी गयी है। उछृङ्खल धनपति यदि तपस्या न करें तो उनकी अनर्गल पीडक वृत्ति से जन्य पाप का विनाश नहीं हो सकता है। देवों में सांसारिक सुख की प्रधानता है । इष्टवियोग, ईर्षा, अधीनता, आदि से जो देवों में स्वल्प दुःख उपजता है वह नगण्य है। मनुष्यों में सुख दुःख का मिश्रण है। राजा, रईसों को उपरिष्ठात् विशेष सुख दीखता है। किन्तु उनको रोग, अपमान, अपयश, सन्तानरहितपन आदिका कुछ न कुछ दुःख सताता रहता है। पापसेवन भी दुःखरूप ही है। अधिकृतों को ताप पहुंचाना भी परिशेष में दुःखरूप है। निर्धन ग्रामीण पुरुषों को त्यौहार के दिन या विवाह , सगाई, मेला आदिके अवसर पर छोटे-छोटे कारणों से ही महान सुख उत्पन्न हो जाता है। पिसनहारी को पीतल के छला से जो आनंद आता है वह महाराणी के रत्न जड़ित अंगूठी के सुख से कहीं अधिक है। हाँ कोई कोई विशेष पुण्यशाली पुरुष अथवा कतिपय अत्यन्त दरिद्र दुःखी पुरुष इसके अपवाद हो सकते हैं जो कि नगण्य हैं। तिर्यंच गति में बहुभाग दुःख और अल्पभाग सुख है। राजा, महाराजों के कोई हाथी, घोड़े, बैल भले ही कुछ अधिक सुखी होंय या कोईकोई भाडैतू घोड़ा या गधे, बैल आदि महान् दुःखी होंय किन्तु प्रायः सभी के लिये उपयोगी हो रही उत्सगे विधि कतिपय विशेष व्यक्तियों की अपेक्षा नहीं रखती है। नारकी जीवों में तो महान दास है । वहाँ सुख का लेश मात्र नहीं है। यहां प्रकरण में धर्म से मिले हुये मन्द अशुभध्यानों से युक्त होरहा अल्प आरंभ और अल्प परिग्रह मनुष्य आयुः का आस्रव बखान दिया गया है।
कोई जिज्ञासु पूँछता है कि क्या इतना ही मनुष्य आयु का आस्रव है ? अथवा कुछ और भी कहना है ? इसके उत्तर में ही मानू सूत्रकार अग्रिम सूत्र को कहते हैं।
स्वभावमार्दवं च ॥१८॥