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पंचम-अध्याय
रही रजन पर्यायार्थिक नय के भेद करके पर्यायाथिक नय के दो भेद हैं । यों तीन प्रकार द्रव्याथिक और दो प्रकार पर्यायाथिक नय की विवक्षा करने पर नय पांच कह दिये जाते हैं । एवं शुद्ध द्रव्याथिक मौर अशुद्ध द्रव्याथिक यों दोनों द्रव्याथिकनयों की तथा ऋजुसूत्र शब्द, समभिरूढ, एवंभूत इन चारों पर्यायाथिक नयों की विवक्षा करने पर इस ढंग से २ + ४= ६ नयों के छह अवयव होजाते हैं।
तथैव नेगम, संग्रह, आदि सूत्र के पाठ की अपेक्षा करके नयों के सात भेद भी होजाते हैं यानी नेगम, संग्रह, व्यवहार ये तीन द्रव्याथिक और ऋजुसूत्र, शब्द समभिरूढ़, एवंभूत ये चार पर्यायाथिक यो सातों नयों का सूत्रोक्त सप्तक प्रसिद्ध ही है । नयों की आठ, नौ आदि संख्या का भी निवारण नहीं किया जा सकता है द्रव्याथिक के दो और पर्यायाथिक के छह भेद मिला कर पाठ भेद होजाते हैं। अनादिनित्य पर्यायार्थिक, सादिनित्यपर्यायाथिक आदिक छह भेद पर्यायाथिक के श्री मद्य वसेन विरचित पालापपद्धति में कहे हैं द्रव्याथिक, पर्यायाथिक नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरुढ, . एवंभूत यों ऋषिसम्प्रदाय अनुसार नयों के नौ भेद भी स्मरण होते चले आरहे हैं। इस प्रकार नयों और उपनयों के भेदों की अपेक्षा दस, ग्यारह, वारह, आदि अनेक नय संख्याओं का व्याख्यान किया जा सकता है पालापपद्धति और नय चक्रग्रथों में इनका विस्तार देख लिया जाय 'नैगम संग्रह, आदि सूत्र की श्लोक रूप वात्तिकों में भी इनका विवरण किया जा चुका है तिस कारण प्रकरण में यह सिद्ध होजाता है कि सूत्रकार का पर्याथों का गुणों से कथंचित् भिन्न पने करके कथन करना अनुचित् नहीं है जिससे कि 'गुणपर्ययवद्रव्यं' गुणों और पर्यायों वाला द्रव्य होता है इस प्रकार द्रव्य का लक्षण करना निर्दोष नहीं होता। अर्थात्-श्री उमास्वामी महाराज का सूत्रोक्त द्रव्यलक्षण अव्याप्ति व्याभिचार प्रादि सम्पूर्ण दोषों से रहित है। ___ प्रतीयतामेवमजीवतत्वं समासतः सूत्रितसर्वभेदं ।
प्रमाणतस्तद्विपरीतरूपं प्रकल्पतां सन्नयतो निहत्य ॥ १ ॥
पंचम अध्याय के समाप्ति अवसर पर उपेन्द्रवज्रा छन्दः द्वारा ग्रन्थकार उक्त प्रकरणों का उपसंहार दिखाते हुये कहते हैं कि इस प्रकार जिस अजीव तत्व के सम्पूर्ण भेदों का श्री उमास्वामी महाराज ने संक्षेप से इस पंचम अध्याय में सूत्रों द्वारा निरूपण कर दिया है तथा भेद प्रभेद सहित उस अजीव तत्व को युक्तिपूर्वक प्रमाणों से श्लोकवात्तिक ग्रन्थ में साध दिया गया है। "जीवाजीवा" इत्यादि सूत्र अनुसार तत्वों का निर्णय करने वाले पण्डितों को उस अजीवतत्त्व की प्रमाणों से प्रतीति कर लेनी चाहिये हां नाना प्रकार अयुक्त कल्पनाओं को करने वाले कुतर्की वावदूकों द्वारा गढ़ लिये गये अजीव तत्व के विपरीत स्वरूप का समीचीन नयों से अथवा प्रमाणों से भी खण्डन कर जैन सिद्धान्त अनुसार पुद्गल, धर्म, अधर्म आकाश, काल, इन, अजीव तत्वों की प्रतिपत्ति की जानी चाहिये जीव या अजीव की प्रतीति करते सन्ते प्रद्धालु का कारणविपर्याय, स्वरूपविपर्यास, भेदाभेदविपर्यास