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________________ पचम-शाध्याय C द्वयधिकादिगुणानां तु बंधोस्तीति निवेदयन् । सर्वापवादनिमुक्तविषयस्याह संभवम् ॥ १ ॥ ३५७ द्वधिकादिगुणानां तु ' इस सूत्र द्वारा दो अधिक गुणवाले परमाणुओं का तो बंध होजाता है, यों निवेदन करते हुये सूत्रकार महाराज सम्पूर्ण अपवादों से सर्वथा रहित होरहे गंध विषय के सम्भवने को कह रहे हैं । अर्थात्- 'स्निग्धरूक्षत्वाद्बंध:' यह उत्सगं सूत्र है, उसके पीछे 'न जघन्यगुणानां 'गुणसाम्ये सदृशानां' ये अपवाद सूत्र हैं, 'द्वद्यधिकादिगुणानां तु' यह अपवादों से रहित होता हुआ बंध विषय के निर्णीत सिद्धान्त को कहने वाला सूत्र है । उक्तं च । 'गिद्धस्स शिद्धेण दुराहिएण, लुक्खस्स लुक्खेण दुराहिए । सिद्धस्स लक्खेण उ एह बंधो, जहण्णवज्जे विसमे समे वा ।।' विषमोऽतुल्यजातीयः समः सजातीयो न पुनः समानभाग इति व्याख्यानान्न समगुणयोर्वधप्रसिद्धिः । उपरिम सिद्धान्त ग्रन्थों में कहा भी है, कि स्निग्ध परमाणु का दूसरी दो अधिक स्निग्ध गुणवाली परमाणु के साथ बंध होजाता है, और रूखे गुण वाली परमाणु का अन्य दो अधिक रूखे गुण वाली परमाणु के साथ बंध होजावेगा । तथा स्निग्ध परमाणु का दो गुरण अधिक रूक्ष वाली द्वितीय परमाणु के साथ बंधना होजायेगा, रूखे का भी द्वयधिक स्निग्ध के साथ बंधजाना सम्भवता है। हाँ परमाणु की जघन्य गुण वाली अवस्था को छोड़ दिया जाय । अन्य सभी सम प्रथवा विषम गुण-धाराश्नों में बंध होजाना अनिवार्य है। विषम का अर्थ यहां प्रतुल्य जाति वाला है, और सम का श्रथं समान जाति वाला है । अर्थात् स्निग्ध का स्निग्मा और रूक्ष का रूक्ष तुल्य जातीय है, किन्तु का रूक्ष और रूक्ष का स्निग्ध परमाणु तो अतुल्य जातीय है, अतः विषम के समान सम यानी सजातीय परमाणुप्रो में भी बंध का विधान कर दिया गया है, सम का अर्थ फिर समान भाग वाला नहीं है, व्याख्यान कर देने से 'गुणसाम्ये सदृशानां' इस सूत्र अनुसार समान गुण वाले परमाणुत्रों के बंध जाने की प्रसिद्धि नहीं होसकी । व्यवहार में भी दो, चार, छह, प्राठ, दस, आदि दो के ऊपर दो दो अंकों की अधिकता होते सन्ते सम संख्या यानी पूरा को समधारा कहते हैं, और एक के ऊपर दो दो की वृद्धि होने पर तीन, पांच, सात, इत्यादि ऊनी संख्या में पड़े हुये ग्रकों को विषमधारा कहते हैं, जघन्य गुणों की श्रवस्था को छोड़ कर दोनों धाराओंों में पड़े हुये चाहे किन्हीं भी प्रविभाग प्रतिच्छेदों के धारी दो गुण अधिक वाले पुद्गलों का बंध होजाना प्रसिद्ध कर दिया गया है, शेष श्रागे पीछे के गुणों को धार रहे पुद्गलों का नहीं । कुतः पुनर्द्वावेव गुणावधिको सजातीयस्य विजातीयस्य वा परेण बंधहेतुतां प्रतिपad नान्यथेत्याह ।
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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