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________________ संपादकीय वक्तव्य तत्त्वार्थश्लोक वार्तिकालंकार का यह छठवां खंड स्वाध्याय प्रेमी बंधुवों के हाथ में देते हुए हमें हर्ष होता है, इस खंड के प्रकाशन में भी अपेक्षा से अधिक विलंब हो गया है, तथापि उसमें हमारी विवशता ही कारण है। प्रारंभ के कुछ भागों का मुद्रण श्री महावीरजी में हुआ, स्व० श्री पं० अजित - कुमारजी की देख-रेख में यह कार्य चला, परंतु उनके आकस्मिक स्वर्गवास से यह कार्य स्थगित रहा, अग्रिम भाग का कार्य वाराणसी में कराना पड़ा, इन सब यातायात आदि के कारण से इसके प्रकाशन में विलंब हुआ। आशा है कि हमारे बंधु क्षमा करेंगे । ग्रंथ परिचय यह तो सुविदित है कि तत्वार्थ श्लोकवार्तिकालंकार तत्त्वार्थसूत्र पर सुविस्तृत नैयायिक शैली की टीका है। महर्षि विद्यानंद ने इस महत्त्वपूर्ण श्लोकवार्तिक में सर्व प्रमेयों का सांगोपांग विचार किया है । किसी भी विषय पर कोई भी शंका शेष न रहे इस प्रकार निःसंदिग्ध विवेचन प्रस्तुत श्लोकवार्तिक में है । करीब ६०० पृष्ठों के प्रथम खंड में केवल प्रथम सूत्र की व्याख्या है। दूसरे, तीसरे, और चौथे खंड में तत्त्वार्थ सूत्र का केवल प्रथम अध्याय समाप्त हो पाया पांचवें खंड में द्वितीय, तृतीय और चौथे अध्याय के विषयों का निरूपण है । अब प्रस्तुत खंड में पांचवें, छठे और सातवें अध्याय के विषयों पर विचार किया गया है । यह खंड भी करीब १०० पृष्ठों का हो गया है जो आपके सन्मुख उपस्थित है। २. इस खंड में आगत विषयों का परिचय कराने की आवश्यकता नहीं है । क्योंकि इसके साथ विस्तृत विषयानुक्रमणिका दी गई है। उसी से स्वाध्यायशील बंधुवों को विषयों का परिज्ञान हो जावेगा । आगामी एक खंड में ग्रंथ समाप्ति करने का हमारा संकल्प है । वह भी शीघ्र पूर्ण होगा ऐसी आशा है । विषयानुक्रमणिका देने की पद्धति का हमने इससे पूर्व के खंडों में अवलंबन नहीं किया था, परंतु कुछ मित्रों की सलाह थी कि विषयानुक्रमणिका देनेसे स्वाध्याय करने वालों को एवं संशोधक विद्वानों को सहूलियत रहती है । सो इस खंड में प्रस्तुत खंड में आगत विषयों की सूची दी गई है । श्लोकानुक्रमणिका भी यथापूर्व दी गई है। इस ग्रंथ के प्रकाशन में संस्थान ने बहुत बड़ा साहस किया है। कारण सातों खंडों के प्रकाशन संस्था के करीब पचास हजार रुपयों का व्यय हो जायगा । तथापि एक महान् ग्रंथराज का प्रकाशन होकर जैन न्याय जगत् की एक महती आवश्यकता की पूर्ति करने का श्रेय संस्था को प्राप्त होगा । ऐसे ग्रंथों के एक बार प्रकाशित होने में ही जहाँ कठिनता का अनुभव होता है वहाँ बार-बार प्रकाशन तो असंभव ही है । उसमें भी विशेष बात यह है कि यह ग्रंथ विद्वान् व संशोधकों के काम की चीज है । जनसाधारण के लिए यह गूढ दार्शनिक विषय होने से शुष्क प्रतीत हो सकता है । हमारे करीब ५०० स्थायी सदस्य हैं, उन्हें तो यह ग्रंथ विना मूल्य ही भेंट में देते हैं। हमारे सदस्यों में प्रायः समाज के प्रसिद्ध स्वाध्याय प्रेमी बंधु आ जाते हैं। अतिरिक्त सज्जन ग्रंथ को खरीदकर पढने वाले बहुत कम रह जाते हैं। इसलिए संस्था का व्यय करीब-करीब साहित्य सेवा में ही उपयुक्त हो जाता है ।
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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