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श्लोक-वातिक
सूक्ष्म कहते हैं। नेत्रके अतिरिक्त शेष चार वहिरिन्द्रियों के विषय होरहे पुद्गलों को सूक्ष्म स्थूल कहते हैं जैसे जिस कढ़ी या दाल में नीबू का रस पहिले से निचोड़ दिया है, अथवा इत्र की शीशी में से सुगन्ध प्रारही है। भगौना में धरे हुये शीतल जल के साथ थोड़ा उष्ण जल मिला दिया जाय तथा शब्दों को सुना जाय ऐसे चक्षुः इन्द्रिय के विषय नहीं होरहे रसवान् गन्धवान्, स्पर्शवान् या पौद्गलिक शब्द इन स्कन्धों को सूक्ष्मस्थूल कहते हैं । जिस पिण्ड का किसी भी इन्द्रिय से प्रत्यक्ष नहीं होसके वे कार्मणवर्गणा, आहारवर्गणा. कर्म, आदि स्कन्ध तो सूक्ष्म कहे जाते हैं, ये पांच तो स्कन्ध के भेद हुये श्री जिनेन्द्रदेव महाराजों ने पुद्गल द्रव्य का छठा भेद सूक्ष्म सूक्ष्म परमाणूमों का कहा है, यो वास्तविक न्यारी न्यारी परमाणूओं का प्रकाश करने वाले आगम वाक्य करके परमाणुषों के कल्लित मानने वाले वाद की वाधा प्राप्त होजाती है । अर्थात्-सिद्धान्त ग्रन्थों में परमाणूत्रों को वस्तुभूत स्वतंत्र साधा गया है, यदि परमाणूयें ही कल्पित होंगी तो उनकी भीत पर रचा गया स्कन्ध ततोपि अधिक कल्पित होगा, कल्पित ईटों का घर वस्तुभूत नहीं है।
__श्री विद्यानन्द स्वामी, श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्त-चक्रवर्ती के ग्रन्थों का प्रमाण दे सकते हैं या नहीं ? इसमें प्रागे पीछे कौन हुये हैं यह सब इतिहास से सम्बन्ध रखने वाला अन्वेषण है, प्रचलित प्रणाली अनुसार देशभाषाकार मैं ने प्राकृत गाथा अनुसार संस्कृत पार्याछन्द का सादृश्य होने से गोम्मटसार के वाक्य का उल्लेख कर दिया है.हां धवल आदि सिद्धान्त ग्रन्थ तो अधिक प्राचीन हैं श्री गोम्मटसार भो तो उन्हीं सिद्धान्त ग्रन्थों के अवलम्ब पर रचे गये हैं। सम्भव है उक्त प्रार्या अधिक प्राचीन होय, अत: समीचीन आगम से कल्पित परमाणुवादका प्रतिविधान होजाता है। एक वात यह भी है कि " भेदादरः" इस परमाणू की उत्पत्ति के सूचक सूत्र करके परमाणूत्रों के वास्तविक रूप से प्रसम्बन्ध होजाने के पक्ष-परिग्रह का निराकरण कर दिया जाता है यानी सूत्र पुकार कर परमाणु की उत्पत्ति को वखान रहा है तो फिर अखण्ड स्कन्धका आग्रह करते हुये परमाणूओं को ही स्वीकार नहीं करना या उनका अबध माने जाना निराकृत होजाता है।
भेदादणुः कल्प्यते इति क्रियाध्याहारान्नोत्पत्तिः परमाणुनामिति चेन्न, भेदसंघातेभ्य उत्पद्यत इत्यत्र स्वयमुत्पद्यत इति क्रियायाः क्रियांतराध्याहारनिवत्यथेमुपन्यासात भेदा दणुरिति सूत्रस्य नियमार्थत्वात् पूर्वसूत्रेणैव परमायुत्पत्तेविधानात ।
परमाणूत्रों का सम्बन्ध नहीं होना मानने वाले वादी कहते हैं कि " भेदादणुः" इस सूत्र का “ कल्प्यते " इस क्रियाका अध्याहार कर देने से यह अर्थ-होजाता है कि भेद से अणु की कल्पना कर ली जाती है, अविभागप्रतिच्छेद का दृष्टान्त दिया जा चुका है परमाणुओं की उत्पत्ति तो छेदन भेदन अनुसार नहीं होती है । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना क्योकि ऊपरले “भेदसघातेभ्य उत्पद्यते " यों इस सूत्र में सूत्रकार महाराज ने स्वयं कण्ठोक्त उत्पद्यन्ते इस क्रिया को उपात्त किया है, अपति-भेद और संघात तथा भेद संघातों से स्कन्ध या परमाणूयें उपजते हैं यो कल्पना, व्यपदेश,