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________________ पंचम-अध्याय ३७५ यों उक्त सूत्र द्वारा विशेषता रहित होकर सम्पूर्ण परमाणुओं का वह बंध होजाना प्रसंग प्राप्त हुआ इस अति प्रसंग के निवारणार्थ न्यक् यानी जघन्य गुणों वाले अथवा बंध योग्य गुणों से रहित होरहे अनिष्ट गुण वाले परमाणुओं के बंध का प्रतिषेध करने के लिये श्री उमास्वामी महाराज इस अगले सूत्र को कहते हैं। न जघन्यगुणानाम् ॥ ३४ ॥ जघन्य गुण वाले यानी निकृष्ट गुण वाले परमाणुगों का बंध नहीं होता है। अर्थात् -पूर्व सूत्र से स्निग्ध रूक्षपने करके परमाणुओं का बंध जाना सामान्य रूप से कह दिया था अब इस सूत्र से जघन्य गुण वाले परमाणुओं के बंध का निषेध कर दिया है । जघन्य गुण वालेका अर्थ एक गुण वाला नहीं होसकता है क्योंकि स्पर्श गुण की स्नेह परिणति या रूक्ष परिणति के अविभाग प्रतिच्छेद घटते घटते भी संख्याते रह जाते हैं । एक ही अविभागप्रतिच्छेदके शेष रह जाने का अवसर नहीं मिल पाता है " अविभागपडिच्छेप्रो जहण उददी पयेसानं " वस्तुभूत अखण्ड शक्ति के परिज्ञानार्थ तारतम्य दिखाने के लिये कल्पित किये गये शक्ति प्रशोंको अविभाग प्रतिच्छेद कहते हैं। जैसे कि जघन्य ज्ञान के अनन्तानन्त अविभाग प्रतिच्छेद माने गये हैं। अथवा लकड़ी की छोटी अग्नि-ज्वाला से उसनो हो तैल दोप. कलिका, घृत दोप कलिका, गैस, विजली, सर्च लाइट में उत्तरोत्तर चाकचक्य के अविभाग प्रतिच्छेदों को अधिकता है। ग्राम की लकड़ी, बबूल को लकड़ी, खैर को, कायले को,पत्थर के कोयले को अग्निों में उत्तरोत्तर उष्णता अधिक है, यह अविभागी अंशों की कलना का माग बता दिया है। इसो प्रकार स्नेह पर्याय या रूक्ष पर्याय में पाये जा रहे संख्यात असंख्यात या अनन्त अविभाग प्रतेच्छेदों की जघन्य अवस्था घटित होजानेपर उन स्निग्धता, रूक्षतामोंसे बंध नहीं होनाताहै. कभी कभी विशेष परिणतियों अनुसार टांका या गोंद उन चांदी, सोने, लोहे, कागज, पत्र प्रादि को जोड़ नहीं पाते हैं, चूना भो कदाचित् ईट से अलग पड़ा रह जाता है, दूध फट जाता है, अतः कतिपय दृष्टान्तों से अतोन्द्रिय जघन्य गुणवाले परमाणुप्रों का नहीं बंध होसकना युक्तियों द्वारा सिद्ध होजाता है। , जघनमिव जघन्यं निकृष्टमिति शाखादित्वादेर्दैहांगत्वाद्वा जघन्य शब्दसिद्धिः जघने भवो जघन्यो निकृष्टः जघन्य इव जघन्योत्यंताप्रकृष्ट इति । गुणराब्दस्यानेकार्थत्वे विवक्षावशाद्भागग्रहणं द्विगुणा यवा इति यथा द्विभागा इत्यर्थप्रातपत्ते जघन्यो गुणा येषां ते जघन्यगुणाः परमाणवः सूक्ष्मत्वाद्वा तेषां न बंध इत्यभिसंबन्धः । तेनैकगुणस्य स्निग्धरूक्षस्य वा परेण स्निग्धेन रूपेण चैकगुणेन द्वित्रिसंख्येयासंख्येयानतगुणेन वा नास्ति बंधस्तथास्यादिमिद्वयादिगरेकगुणैश्चेति मत्रित भवति ।
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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