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पंचम - अध्याय
प्रादि के गंध गुण का गन्ध द्रव्य की मुख्यता से निरूपण होजाता है, द्रव्य की प्रशंसा हाँकते हुये वस्तु वखान दी जाती है, क्योंकि द्रव्य से बड़ी पद्वी वस्तु की है, अनन्तानन्त शक्तियों को धार रही वस्तु की पुनः प्रशंसा करना उसी प्रकार व्यर्थ पड़ता है, जैसे कि सम्माननीय श्री समन्तभद्राचार्य ने “गुणस्तोकं सदुल्लंध्य तद्बहुत्वकथा स्तुतिः । श्रानन्त्यात्ते गुणा वक्तुमशक्यास्त्वपि सा कथं " इस पद्य द्वारा अनन्त गुण सागर श्री प्ररनाथ भगवान् की स्तुति करने में असामर्थ्य प्रगट की है।
जो वादी सिंह कलिकाल - सर्वज्ञ, सिद्धान्त- चक्रवत्तीं, स्याद्वादवारिधि, सिद्धान्तमहोदधि सरनाइट्. रायबहादुर, रायसाहव, सी० आई० ई, जे० पी० आदि पदवियों का प्रदान करने वाला है, वह मूलस्वरूप करके प्रशंसक पदवियों से रीता है । प्रकरण में यह कहना है, कि स्निग्ध रूक्ष, दोनों भाव पदार्थ हैं, उस रूखेपन का वाधक कोई प्रमाण नहीं है । अतः बड़ा ही मनोज्ञ " रूक्षपन" गुरण प्रतिक्षेप करने योग्य नहीं है ।
गुण चौबीस ही हैं, इस वैशेषिकों के नियम की घटना नहीं होसकती है. यानी १ रूप, <रस, ३ गंध, ४ स्पर्श, ५ संख्या, ६ परिमाण, ७ पृथक्त्व, ८ संयोग, ६ विभाग, १० परत्व, ११ अपरत्व, १ गुरुत्व, १३ द्रवत्व, १४ स्नेह, १५ शब्द, १६ बुद्धि, १७ सुख, १८ दुःख, १६ इच्छा, २० द्व ेष, २१ प्रयत्न, २२ धर्म, २३ अधम, २४ संस्कार, ये ही चौबीस ही गुरण नहीं हैं, इनके अतिरिक्त भी अनेक गुण द्रव्यों में विद्यमान हैं ।
कुछ गुण तो चौबीस में भी अधिक हैं। जैसे कि पौद्गलिक स्कन्ध होरहे शब्द और पुण्य पाप को व्यर्थ ही गुरणों में गिन लिया गया है । परत्व, अपरत्व, गुरणोंका भी कोई मूल्य नहीं हैं । सुख और दुःख कोई स्वतंत्र दो गुरण नहीं हैं, सुख गुरण की विभावपरिणति ही दुःख है । गुरुत्व को यदि गुण माना जाता है, तो झोक को भी गुरण मानना चाहिये जिस झोक के कारण वश तीन गज लम्बी ठया को एक ओर से एक अंगुल तिरछा पकड़ कर बड़ा मल्ल भी नहीं उठा सकता है, जिस खाट पर आठ मनुष्य बैठ सकते हैं, एक चंचल लड़का अपनी झोक से उसे अकेला तोड़ देता है, और भी वैशेषिकों के कई गुण परीक्षा की कसौटी पर ठीक नहीं उतर सकते हैं ।
श्रतः सिद्ध होजाता है, कि जैन सिद्धान्त अनुसार रूक्ष गुरण स्वतंत्र है । स्निग्धपन और रूक्षपन से बन्ध होजाता है। मौर तिसप्रकार होते सन्ते जो सिद्धान्त स्थिर हुआ उसको अग्रिम वार्त्तिकों द्वारा यो समझो कि --
स्कंधो वंधात्स वास्त्येषां स्निग्धरूक्षत्वयोगतः । पुद्गलानामितिध्वस्ता सूत्रेस्मिंस्तदभावता ॥ १ ॥ स्निग्धाः स्निग्धैस्तथा रूक्षा रूक्षैः स्निग्धाश्च पुद्गलाः । वं यथासते स्कंधसिद्धेर्वाध कहानितः ॥ २ ॥