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श्लोक - वार्तिक
सूत्रकार ने नित्य का लक्षण कंठोक्त कर दिया है, किन्तु अनित्य का लक्षण सूत्र द्वारा नहीं कहा गया है, तथापि इसी सूत्र की सामर्थ्य से यह दूसरा सूत्र कहा गया लब्ध होजाता है अर्थात्स्वल्प व्यक्तियों में अत्यधिक प्रमेय अर्थको ठूंस लेने वाले सूत्रों द्वारा बहुतसा अर्थ विना कहे ही प्राप्त होजाता है । वह सब गुरु, गम्भीर, सूत्र की ही महिमा है । गुरुजी महाराज सभी ग्रन्थों को नहीं पढ़ाते हैं तथापि उनकी पाठन प्रक्रिया अनुसार विनीत शिष्य को अनेक ग्रन्थ स्वतः लग जाते हैं. कृतज्ञ शिष्य को यह सब गुरु ज का ही प्रसाद समझना चाहिये । प्रकरण में यह कहना है कि प्रतियोगितान्याय या परिशेष न्याय से यहां अनित्य का लक्षण करने वाला यह दूसरा सूत्र ध्वनित होजाता है कि प्रत भाव करके यानी सादृश्य या वैलक्षण्य को विषय करने वाले प्रत्यभिज्ञान के हेतु होरहे तादृश अन्याश, परिणतियों करके जो विनाशसहित होजाना है वह अनित्य है, यों लगे हाथ अनत्यका भी लक्षण होगया है ।
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उक्त सूत्र का अर्थ यह है कि उसका यानी विवक्षित पदार्थ का जो भाव है वह तद्भाव है। षष्ठीतत्पुरुष वृत्ति द्वारा बनाये गये तद्भाव शब्द का तत्पना यानी एकपना अर्थ होता है जो कि तत् बेचारा " यह वही है ऐसे प्रत्यभिज्ञान प्रमाण द्वारा भले प्रकार समझ लेने योग्य है। इस प्रकार तत् का भाव स्वीकार किया गया है उस तद्भाव करके कदाचित् भी विनाश होजाने का प्रभाव है । इस काररण तद्भाव करके नहीं विनाश होने को नित्य माना गया हैं, है " एक संबंधिज्ञानमपरसंम्बधिस्मारकं " यों विना कहे ही अन्य उक्त लित उत्पाद पद का भी अध्याहार होरहा अवगत होजाता है । अतः तद्भाव करके उत्पाद नहीं होना भी नित्य के उदर में संप्रविष्ट है । अनुत्पाद और अव्यय का अविनाभाव है, अतः लाघव प्रयुक्त अव्यय शब्द से ही अनुत्पाद को गतार्थ कर दिया गया है । सूत्रकार महाराज की अप्रतिम प्रतिभा की जितनी भी प्रशंसा प्रतिष्ठित की जाय वह स्वल्प है। जिस पदार्थ में व्यय की निवृत्ति होगई है उसमें व्यय निवृत्ति होते ही उसी समय उत्पाद की निवृत्ति स्वतः सिद्ध होजाती है जैसे कि अश्वके दक्षिण ग
निवृत्त होते ही वामशृङ्गकी तत्काल निवृत्ति होजाती है। बात यह है कि उत्तर आकार के उत्पाद की पूर्व प्रकार के विनाश के साथ व्याप्ति होचुकी है "कार्योत्पादः क्षयो हेतोः " । अतः उस ब्यय की निवृत्ति होने पर नित्य द्रव्य में उत्पाद की निवृत्ति विना कहे ही सिद्ध होजाती है ।
तद्भावोन्यत्व पूर्वस्मादन्यदिदमित्यन्वयप्रत्ययादव सेयं । तस्वधौव्यमनित्यमुत्पादव्यययोगात् तदुक्तं " नित्यं तदेवेदमिति प्रतीतर्न नित्यमन्यत्प्रतिपत्तिसिद्धेरिति तदेव युक्तमेतत्सूत्रद्वितयमित्युपदर्शयति ।
यहां सूत्र में व्यय पद उपलक्षण शब्दों की सामर्थ्य से नञ् संक
अनित्य का ज्ञापक सिद्ध लक्षण करने पर प्रयुक्त किये गये प्रतद्भाव का अर्थ अन्यपता है जो कि " पूर्व परिणाम से यह परिणाम अन्य है" इस प्रकार प्रत्यभिज्ञान स्वरूप अन्वय प्रत्यय से वह प्रभाव जान लेने योग्य है । वह प्रतद्द्भावका प्रयोजक तो मनोव्य यानी श्रनित्य है । क्योंकि