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पंचम-अध्याय
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हम प्रार्हत सिद्धान्ती प्रथम पक्ष अनुसार विशेष रूप से सत्को द्रव्य का लक्षण नहीं स्वीकार करते हैं । जिससे कि इस लक्षण में अतिव्याप्ति, अव्याप्ति दोप होजाते, हम तो सामान्य रूपसे उस सत् को उस द्रव्यका लक्षण होजाना स्वीकार करते हैं । इस प्रकार मानने पर शुद्ध द्रव्य ही सत् लक्षण वाला नहीं हो सकेगा जिससे कि द्वितीय पक्ष अनुसार अव्याप्ति दोष पाजाय अशुद्ध द्रव्य को भी उस सामान्यतः सत्पन लक्षण से युक्तपना बन जाता है, तिस कारण सम्पूर्ण लक्ष्यों में सामान्य सत इस लक्षण की घटना होजाने से लक्षण के उपर अव्याप्ति दोष नहीं पाता है, कारण कि जिस ही प्रकार सम्पूर्ण देश और सम्पूर्ण कालों करके नहीं विच्छिन्न होरहा अटूट . तासामान्य बेचारा सभी स्थलों पर सम्पूर्ण कालों में सभी प्रकारों करके वस्तु में " सत् है सत् है " ऐसे ज्ञान और व्यवहारियों में बोले जा रहे शब्दव्यवहार का कारण होरहा सन्ता शुद्ध द्रव्य का लक्षण है जोकि बालक, वालिका, पामर, से प्रारम्भ कर प्रकृष्ट विद्वानों तक वाधारहित होकर अनुभवा जा रहा सन्ता प्रसिद्ध है।
तिस प्रकार सम्पूर्ण जीब, पुद्गल, धर्म, आदि विशेष द्रव्यों में भी “ ये द्रव्य हैं यह द्रव्य है" इत्यादिक रूप से अनुभवे जा रहे ज्ञान और शब्द व्यवहार के कारण होरहे द्रव्य को विशेषण मान रहा सत् ही द्रव्यपन है । “ मनुष्य जीबः सन्” यों अशुद्ध द्रव्य करके विशेषण सहित होरहा सत्व ही अशुद्धता है । अर्थाद-श्री सिद्धभगवान्, अाकाश, आदि शुद्ध द्रव्यों में जैसे " सत् सत्" इस ज्ञान और शब्द योजनाके व्यवहार का कारण सत्ता सामान्य ही द्रव्य की शुद्धता है, उसी प्रकार द्वथणुक, नारकी, प्रादि - शुद्ध द्रव्यों या विशेष विशेष जीव आदि द्रव्यों में " द्रव्य है द्रव्य है " ऐसे ज्ञान या शब्दों के होजाने का कारण होरहा सत्व ही द्रव्य की अशुद्धता या विशेष व्यक्तित्व है। अतः द्रव्य का लक्षण सामान्यतः सत्पना शुद्धद्रव्य के समान अशुद्ध द्रव्यों में भी चरितार्थ है।
___एवं जीवपुद्गलधर्माधर्माकाशकालद्रव्यं प्रत्येतव्यं । क्रमयोगपद्यवत्ति-स्वपर्यायव्यापि-जीवत्वविशेषणस्य सत्वस्य जी द्रव्यसत्तादृक् पुद्गलव विशिष्टम्य पुद्गलद्रव्यन्वात क्रमाक्रमभाविधर्मपर्यायापिधर्मत्वविशेषणस्य धर्मद्रव्यत्वात. -थाविधाधर्मत्वोपहितस्याधर्मद्रव्यत्वात्, तादृशाकाशत्वोपाधेराकाशद्रव्यत्वात्, क्रमाक्रममादिपर्यायव्यापिकालत्वविशिष्टस्य कालद्रव्यत्वात् ।
जैसे शुद्ध द्रव्य अथवा अशुद्ध द्रव्य इस सामान्य रूप से सत्पन लक्षण करके तदात्मक होरहे हैं । इसी प्रकार विशेषरणसहित सत्व को धार रहे जीवद्रव्य, पुद्गलद्रव्य, धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाश द्रव्य और काल द्रव्य भी विश्वास कर लेने योग्य हैं, कारण कि जीव की क्रम से वर्त रही क्रमभावि पर्यायें, और युगपत्पन से वर्त रहे गुणनामक सहभावी पर्यायें यों अपनी दोनों जाति की पर्यायों में व्याप रहा जोवत्व नामक विशेषरण का धारी सत्व ही जीव द्रव्य है। अर्थात् –जीव में सामान्य सत्व रह गया जो कि त्रिकाल-वर्ती सहभावी, क्रमभावी पर्यायों. में व्याप रहे जीवन नामक विशेषण से संयुक्त है। उसी ढंग से तिस प्रकार की क्रम और युगपत्पने से वर्त रही अपनी अपनी पर्यायों में व्याप