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________________ ३३४ श्लोक- वार्तिक स्वस्य हेतोर्व्यभिचारात । यथैव हि कर्णपिंडानां सतां समुपजायमानो घनावयवकर्पास पिंडः सूक्ष्मो न स्थूल भेदपूर्वकस्तथा स एव तेषां स्थविष्ठानां संयोगविशेषादु' जायम नो घनावयवः स्वपरिमाणादनणुपरिमाण कारणारब्धः प्रतीतिविषयः । ततो नाप्तोपज्ञमिद नियमकल्पनमिति यथा सूत्रोपपादितं तथेास्तु | उक्त वात्तिकों का विवरण इस प्रकार है कि विवाद ग्रस्त होरहा अवयवी ( पक्ष ) स्वकोय परिमाण से अल्प परिमाण वाले कारणों से बनाया गया है, ( साध्य ) श्रवयवी होने से ( हेतु ) पट के समान श्रन्वयदृष्टान्त ) । इस प्रकार जिन वैशेषिकों ने अनुमान कहा था वे इस अनुमान को भी प्रसन्नतापूर्वक स्पष्ट बोल देवें, मन में कोई भ्रम नहीं करें कि जैनों के निर्णीत और नैयायिकों के यहां विवाद के विषय हो रहे सूक्ष्म प्रवयव ( पक्ष ) स्थूल प्रवयवियों के छिद, भिद, जाने को पूर्ववर्ती कारण मान कर उपजे हैं, ( साध्य ) सूक्ष्मपन होने से या अवयवपन होने से ( हेतु ) पट के टुकडे या घट की ठिकुच्ची प्रथवा गेंहू के चून आदि के समान ( अन्वयदृष्टान्त ) | इस अनुमान को कहने में वैशेषिक यदि यों विचार करें कि ढिल्लक ढिल्ले अवयव वाले रुई के पिण्ड का सम्मिश्रण होजाने से बनाये गये रुई के सूक्ष्म ( छ टे) परिमाणवाले घने पिण्ड करके इस सूक्ष्मत्व हेतुका व्यभिचार आता है, अतः बलात्कार से स्वीकार कराये ये इस प्रकार प्रयुक्त दूसरे अनुमान को वैशेषिक नहीं कहते हैं। यों कहने पर तो प्राचार्य कहते है, कि तुम वैशेषिकों के कहे जा चुके अन्य पहिले अनुमान में भी समान रूप से व्यभिचार दोष श्राता है, देखिये अपनी घनी गांठ के परिमाण से महापरिमाण वाले कारणों से बनाये गये उसी घनी रुई के पिण्ड करके श्रवयवित्व हेतु का भी व्यभिचार आता है, कारण कि जिस ही प्रकार कार्य के अव्यवहित पूर्व समय में उपादान कारण होकर सद्भूत होरहे ढीले विखर रहे अवयव वाले रुई के पिण्डों का उपादेय होकर अच्छा उपज रहा घने अवयवों वाला रुई का पिण्ड सूक्ष्म परिमारणवान् है, वह छोटी रुई की गाँठ बेचारी स्थूल अवयवी के विदारण को कारण मान कर नहीं उपज रही है, तिसी प्रकार उन शिथिल होरहे अतिस्थूल कपासों के संयोगविशेषों से उपज रहा वही घन अवयववाला रुई की गांठ का पिण्ड बेचारा स्वकीय परिमाण से अनल्प ( महा ) परिमाण वाले कारणों से बनाया गया प्रतीतियों का विषय हो रहा है, तब तो तुम वैशेषिकों का पहिला कहा गया हेतु भी प्रनैकान्तिक हेत्वाभास है, तिस कारण सिद्ध होजाता है, कि "सूक्ष्मपरिमाणवाले कारणों से ही स्थूल परिमाण वाले कार्य बनते हैं, स्थूल परिमाण वाले कारणोंसे सूक्ष्म परिमाण वाले कार्य नहीं बनते हैं. यह वैशेषिकों द्वारा की गई नियमकी कल्पना कोई सर्वज्ञ प्राप्तके श्राद्यज्ञानका विषय नहीं है, अल्पज्ञ पुरुष दीन है त्रिलोक, त्रिकाल में प्रवाधित होरहे नियम का प्रतिपादन नहीं करसकते हैं, अतः सर्वज्ञ की परम्परा से महाराजकृत सूत्र में जिस प्रकार भेद से प्रभु की उत्पत्ति कही गई है, और समीचीन युक्तियां दी गई हैं, उसी प्रकार नियम की कल्पना करो । प्राप्त हो रहे उमास्वामी श्राचार्यों द्वारा उसमें जो
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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