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________________ पंचम - अध्याय ३३१ व्यस्य तदुपादानकारणस्य भावात् स्कंधभेदस्य च सहकारिणः प्रसिद्धे स्तद्भावे वा भावात् । वैशेषिक कहते हैं, कि परमाणुयें तो अनादि से अनन्त काल तक ध्रुव बनी रहने के कारण नित्य हैं, अतः स्कन्धों के विदारण से उन परमाणुपों की उत्पत्ति नहीं होती है । ग्रन्थकार कहते हैं, कि यह तो नहीं कहना क्योंकि उन परमाणुत्रों के सर्वथा नित्यपन का निश्चय नहीं होरहा है, हाँ कथंचित् नित्य परमाणुओं का स्कन्ध से उत्पन्न होजाना अविरुद्ध है । यदि वैशेषिक पुनः प्रावेश में आकर अनुमान बना कर कहें कि परमाणुयें ( पक्ष ) नित्य हैं, ( साध्यदल ) सत् होते सन्ते कारण वाले नहीं होने से ( हेतु ) प्रकाश, आत्मा, आदि द्रव्यों के समान ( अन्वयदृष्टान्त ) इस अनुमान के हेतुदल 'में यदि केवल सत्पना ही कहा जाता तो घट, पट, यादि अनित्य पदार्थों करके व्यभिचार प्रजाता ऋतः अकारणवान् कहा गया है, घट पट, आदि अपने जनक कारणों करके सहित होरहे कारणवान् हैं । और यदि कारणवान्पना इतना ही हेतु कह दिया जाता तो प्रागभाव करके व्यभिचार होजाता है, "अनादिः सान्तः प्रागभावः " अनादि काल से चला रहा प्रागभाव अपने उत्पादक कारणों से रहित है, अतः "सत्वे सति" यह विशेषरण दिया गया है । हमारे यहाँ प्रागभाव को द्रव्य आदि सद्भूत षड्-वर्ग में नहीं गिनाया गया है, चारों प्रभाव पदार्थों में प्रागभाव पड़ा हुआ है, अतः "सत्वे सति अकारणवत्व, हेतु से परमाणु में नित्यत्व सिद्ध होजाता है । अब नाचार्य कहते हैं, कि वैशेषिकों का यह कहना भी समीचीन नहीं है, क्योंकि उन परमाणूनों का स्वकीय कारणोंसे रहितपना प्रसिद्ध है, अतः वैशेषिकों का सद्द्मकारणवत्व हेतु स्वरूपा• सिद्ध हेत्वाभास है, जब कि उन परमाणुत्रों के उपादान कारण होरहे द्वणुक, त्र्यणुक, आदि अशुद्ध पुद्गल द्रव्यों का सद्भाव है और उन परमाणूनों के सहकारी कारण होरहे स्कन्ध विदारण की सर्वत्र प्रसिद्धि है । अथवा उन उपादान कारण और सहकारी कारणों के होने पर परमाणूनों का भाव ( उत्पत्ति ) है, इस अन्वय से परमारों का कार्य पना प्रसिद्ध होजाता है, अपने उपादान कारण श्रौर सहकारी कारणों के साथ परमाणूों का व्यतिरेक भी बन जाता है, अतः बड़े स्कंध के विदारण से छोटे छोटे परमाणों का उत्पाद होजाना सिद्ध हुआ । सूक्ष्मपूर्वकः स्कन्धो न स्कंधपूर्वकः सूक्ष्मास्ति यत स्कंधादगुरुत्पद्यत इति चेन, प्रमाणाभावात् वैशेषिक कहते हैं कि सूतों से वस्त्र बनता है, चुन की करिणकामों से लूड़ बन जाती है, बूरे से पेड़ा बन जाता है, अतः सूक्ष्म परिमाण वाले द्रव्य को पूववर्ती मान कर बड़ा स्कन्ध बन जाता है, किन्तु बड़े परिमाणवाले स्कन्ध को पूर्ववर्ती कारण मान कर अल्प परिमाण वाला छोटा अवयव उपज कर आत्म लाभ नहीं करता है, जिसे कि जैनमत अनुसार बड़े स्कन्ध से परमाणू की उत्पत्ति मानी जाय अर्थात्-बड़े स्कन्ध से छोटे परमाणू की उत्पत्ति नहीं होसकती है, जगत् में छोटों ने बड़ों को 1 उत्पन्न किया है, बड़ों ने छोटों को नहीं, हाँ बड़े नष्ट होकर भले ही छोटे होजांय ।
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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