SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 273
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ પ્રદે श्लोक-वार्तिक कल्पनारोपित संस्कारापेक्षायां कल्पनारोपितादेव वाक्याथप्रतिपत्तिप्रसंगात् तत्संस्काराणां कालांतरस्थायित्वेंन्यवर्णश्रवणा हितसंस्कारस्य पूर्ववर्णश्रवणा हितसंस्कारैः सहार्थप्रति मिति तत्संस्कार समूहोऽर्थप्रतिपत्तिहेतुनं शब्द इत्यायातं । न चैतद्युक्त, वर्णश्रवणाहितसंस्कारेभ्यो वर्णस्मरणमात्रस्यैवो पत्तेः पदश्रवणा हितसंस्कारेभ्यः पदम्म णमात्रवत् । याकरण के प्रति वैशेषिक कह रहे हैं कि भले ही पूर्व शब्दों या उनके पूर्व वर्त्ती ज्ञानों के समान उन ज्ञानों के सस्कार भी मर चुके हैं फिर भी कल्पना से आरोपे जा चुके उन संस्कारों की अपेक्षा करना वाक्यार्थ की प्रतिपत्ति में मान लिया जाता है, मरे हुयेकी मूर्तियां या चित्र कुछ कार्य को कर ही देते हैं " यो लुप्यते स लुप्यमानार्थ विधायी" । यों कहने पर तो हम वैयाकरण कहेंगे कि तब तो कल्पना करके आरोपे गये ही संस्कार से वाक्यार्थ की प्रतिपत्ति होने का प्रसंग प्राप्त हुआ मर गयीं गाय भैसों की तस्वीरें या खिलोने दूध नहीं देते हैं, कल्पित कारणों से झूठ मूठ कल्पित ही कार्य होसकते हैं जैसे कि बच्चे खेला करते हैं, किन्तु यह कार्यकारण भाव कोई बच्चों का खेल नहीं है, वस्तुभूत भाव - आत्मक कारण का यथार्थ कार्य की उत्पत्ति में व्यापार करना पड़ता है झूट मूठ कल्पित कर लिये गये संस्कार कुछ भी कार्यकारी नहीं हैं । हाँ उन संस्कारों को क्षणिक नहीं मान कर यदि देर तक कालान्तर-स्थायी माना जायगा तब तो अन्तिम वर्ण के सुनने से धार लिये गये संस्कार को पहिले पहिले वर्गों के सुनने द्वारा प्रधान किये जा चुके संस्कारों के साथ अर्थ की प्रतिपत्ति का कारणपना श्राया और यों उन सस्कारों का समूह ही अर्थ की प्रतिपत्ति कराने का हेतु हुआ शब्द तो वाच्य अर्थ का प्रतिपादक नहीं हो सका यह प्रनिष्ट आपत्ति आई किन्तु यह शब्द को पदार्थ का प्रतिपादक नहीं मानते हुये सस्कारों को की प्रतिपत्ति का कारण मान लेना वैशेषिकों को कथमपि उचित नहीं है, देव-दत्त आदि वर्णों के सुनने से जमालिये गये संस्कारों से केवल वर्णों का ही स्मरण होना बन सकता है, जैसे कि देव दत्त - गां- अभ्याज शुक्लाम् दण्डेन इत्यादि पदों के श्रावण - प्रत्यक्ष द्वारा जड़ लिये गये संस्कारों से केवलपदों का ही स्मरण हो सकता है बाक्य के अर्थ की या प्रकरण के अर्थ की अखण्ड प्रतिपत्ति नहीं हो सकेगी । अथ संकेनबलोपजातपदाभिधेयज्ञः नाहितसंस्कारेभ्योर्थ प्रतिसत्तिरिष्यते तथापि पदाप्रतिपत्तिरेव स्यान्न वाक्यार्थप्रतपत्तिः । न च पदार्थ ममुदायप्रतिपत्तिरेव वाक्य र्थप्रतिपत्ति रिति युक्तं वर्णार्थसमुदायप्रतिपत्तिरेव पदार्थप्रतिपत्तिरूत्वसंगात् । न च वर्णानामर्थाभावे पदस्यार्थवत्त्वं घटते, तस्य प्रकृतिप्रत्ययादिसमुदायात्मकत्वात् प्रकृत्यादीनां च अर्थ - पगमात् । वैयाकरण ही कहे जा रहे हैं कि अब यदि वैशेषिक यों इष्ट करें कि भले ही वर्णों के संस्कार से वरणों का स्मरण होसके किन्तु जो वृद्धव्यवहार से हमने पूर्व में यो संकेत ग्रहण कर रहा है
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy