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श्लोक- वार्तिक
फेंका जाता है, घनगर्जन या बड़ी तोप के शब्दों से तो कान बहिरे या गर्भपात, हृदयकंप आदि विपत्तियां उपज जाती हैं, ये कृत्य पुद्गलपर्याय से ही सम्भवते हैं, गुण से नहीं । हेतु में पड़े हुये भेद
अर्थ केवल विभाग नहीं है, पुद्गल पिण्डस्वरूप स्कन्ध के विदारण को भेद शब्द करके कहा जाता है तथा संघात का अर्थ भी केवल संयोग ही नहीं है किन्तु यही, चून, के पिण्ड या तन्तु प्रादिके स्कन्धभूत, परिणाम को संघात शब्द करके कहा गया है, टुकड़े होजाने का और मिल जाने को स्थूल रूप से भेद और संघात का अर्थ समझ लेना चाहिये। जो ज्ञान सुख प्रादिक पदार्थ पुद्गल पर्याय नहीं हैं इन को उन भेद और संघात से उपजरहापन नहीं है जिससे कि हमारा हेतु व्यभिचारी होजाय अर्थात्-भेद और संघात से उपजरहापन हेतु निर्दोष है। अपने साध्य किये गये पुद्गलपर्यायपन को सिद्ध कर ही देता है ।
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भेदात् पृथिव्यादीनामुत्पत्यसंभवादसिद्धो हेतुरिति चेन्न, घटादिभेदात्कपालाद्युत्पचिदर्शनात् द्वयणुकभेदादपि परमाणुत्पत्तिसिद्धेः । यथैव हि तंत्वादिसंघातान्वयव्यतिरेकानुविधानात् पटादीनां तत्संघातादुत्पत्तिरुररीक्रियते तथा पटादिभेदान्वयव्यतिरेकानुविधाना तंत्त्रादीनामात्मलाभात्तद्भेदादुत्पत्तिः सुशकाभ्युपगंतुम् । पटादिभेदाभावेपि तत्त्वादिदर्शनान ततस्तदुपत्तिरिति चेन्न, तस्यापि तत्वादेः कर्पासप्रवेणीभेदादेव त्पत्तिसिद्धेः ।
यहां कोई वैशेषिक प्रतिवादी उक्त हेतु को स्वरूपासिद्ध हेत्वाभास बताने का प्रयत्न करता है कि स्कन्धों का विदारण करने से पृथिवी आदिकों के उपजने का प्रसम्भव है, अतः जैनों का हेतु पक्ष में नहीं वर्तने से प्रसिद्ध है अर्थात् - जैन जहां भेद से खण्डपट, कपलिका आदि की उत्पत्ति मानते हैं वहां भी वयवी के अवयव, पंचारणुक, चतुरगुक, त्र्यक, द्वयक, परमाणु, इस क्रम से प्रलय हो कर पुनः द्वधरणुक, त्र्यरणुक, चतुरगुक आदि की सृष्टिप्रक्रिया अनुसार ही खण्डपट, कपालिका, ठिकुच्ची श्रादि की उत्पत्ति भी संघात से ही होती है, भेद से तो नाश भले ही हो जाय, जो कोई छोटा टुकड़ा भी उपजेगा वह अपने उपादान कारण लघु अवयवोंके संयोगसे ही उत्पन्न होगा, अतः जैनों का हे सिद्ध है।
ग्रन्थकार कहते हैं यह तो नहीं कहना क्योंकि घट, गेहूँ, डेल आदि का विदारण कर देनेसे कपाल, चून, डेली, आदि पुद्गल पर्यायों की उत्पत्ति होरही देखी जाती है । द्वयक के भेदसे परमाणु की उत्पत्ति हो रही भी सिद्ध है, परमाणु की उत्पत्ति में भेदके अतिरिक्त अन्य कोई उपाय नहीं है जब कि परमाणु से छोटा कोई अवयव नहीं माना गया है, परमाणु नित्य द्रव्य नहीं है इसका प्रकरणवश निर्णय करा दिया जावेगा। देखो जिस ही प्रकार तन्तु, कनिक, आदि श्रवयवों के एकीभाव के साथ अन्वय और व्यतिरेक का अनुविधान करने से पट लुण्ड, आदि श्रवयवियों की उन अवयवोंके संघात से उत्पत्ति होना स्वीकार किया जाता है उसी प्रकार पट (थान) लक्कड़ चना, आदि श्रवयवियों के भेद के साथ अन्वयव्यतिरेकों का अनुविधान करने से तन्तु (सूत) चीपुटी, दौल, श्रादि अवयवों का आत्मलाभ होजाने के कारण उन श्रवयवियों के भेद से अवयवों की उत्पत्ति होना बहुत अच्छा स्वीकार किया जासकता है। कपड़ा फाड़ करके चीर चीर कर दिया जाता है, दुपट्टा काढ़ने के लिये लड़कियां कपड़े में से सुत निकाल लेती हैं ।
यदि यहां वैशेषिक यां कहैं कि पहिल पहिले उपजे हुये सूत की अवस्था में कपड़ा, थान,