________________
पंचम-अध्याय
२४५
नामक पृद्गल में दाहकाव. पाचकत्व, शोषक त्व, स्फोट कत्व प्रादि पर्याय-शक्तियां (अनित्यगुण) विद्यमान हैं। विष पुद्गल में मारकत्व शक्ति है किन्तु विष की कालान्तर में अमृत, औषधि दुग्ध. प्राद परिणति होजाने पर उसमें जीवकत्व शक्ति उपज जाती है। सर्प के मुख में दूध विष हो जाता है। शब्द नामक पुद्गल स्काध या अशुद्ध द्रव्य भी अनेक पर्याय शक्तियों को धार रहा है। गाली के शब्दों से दुःख उपजता है, प्रशसा-सूचक शब्दों से हर्ष उत्पन्न होता है. मंत्र प्रात्मक शब्दों से अनेक सिद्धियां होजाती हैं, सांप, बिच्छू, आदि के विष उतर जाते हैं तोपके या बिजली के शब्दों से गर्भपात हो जाता है, भीतें फट जाती हैं, हृदय को धक्का लगता है, किसी किसी के कान बहरे हो जाते हैं । यो शब्द में भी अनेक पर्यायात्मक शक्तियां विद्यमान हैं । शक्ति और शक्तिमान का प्रभेद है, अत: शब्द को गुण कहने में जैनों को कोई जैन सिद्धान्त से विरोध नहीं पाता है। एक बात यह भी है कि इस प्रकरण में वादो प्राचार्य महाराज ने प्रतिवादी वैशेषिकों के प्रति उन्हीं की युक्तियों से उन्हीं के सिद्धान्त का प्रत्याख्यान करना अपना ध्येय कर लिया दीरूता है वैशेषिकों ने शब्द को आकाश का गुण स्वीकार कर रक्खा है।
स्यान्मतं, न शब्दः पुद्गलस्कंध र्यायोऽम्मदाद्यनुपलभ्यमानस्पर्शरूपरसगंधाश्रयत्वात्सुखादिवदिति । तदसत द्वयणुकादिरूपादिग हेनोर्यभिच गत शब्द'श्रयत्वेऽग्मदाद्यनुपलभ्यमानानामप्यनुद्भूततया म्पर्शादीनां म्द्भाव साधनात गन्धाश्रयत्वे म्पर्शरूपरसवत । गंधा हि कस्तूरिकादेगंधद्रव्यारे गंधं समुपलभ्यमाने घ्राणेंद्रिये सम्प्राप्तः म्वाश्रयद्रव्यरहितः न संभवति, गुणत्वाभावप्रसंगात । नापि तदाश्रयद्रव्यमम्मदादिभिरुपलभ्यमानस्पर्शरूपरसं न च तत्रानुभृतवृत्तयः स्पर्शरूपरसा न संति पार्थिवेप्यविरोधात् ।
यदि वैशेषिकों ने यह मत ठान लिया होय कि शब्द . पक्ष ) पुद्गलस्कंध की पर्याय नहीं है ( साध्य ) हम आदि प्रल्पज्ञ जीवों के द्वारा नहीं देखे जा रहे स्पर्श, रूप, रस, गन्धों का प्राश्रय होने से ( हेतु , सुख प्रादि के समान : अन्वयदृष्टान्त ! । अर्थात्-शब्द दि पुद्गल का पर्याय होता तो उसके रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, हमको इन्द्रियो द्वारा दीख जाते किन्तु नहीं दीखते हैं अथवा हम प्रादि करके स्पर्श, रूप, रस गन्धों का प्राश्रयपना शब्दों में नहीं देखा जाता है, यों हेतु मानकर अन्वयदृष्टान्त में घटित कर लो। अतः सुख ज्ञान आदि के समान शब्द भी पुद्गल की पर्याय नहीं है,गुण कारण भी पूर्वक शब्द नहीं है। प्राचार्य कहते हैं कि वैशेषिकों का वह कथन प्रशंसनीय नहीं है क्योंकि दो या तीन अणुनों के संयोग अथवा बन्ध से उपजे हुये द्वघणुक, त्र्यणुक आदि के रूप, रस, आदि गुणों करके तुम्हारे हेतु का व्यभिचार दोष प्राता है । द्वथणुक, त्र्यणुक आदि के रूप, रस, प्रादि का हमें, तुम्हें, प्रत्यक्ष नहीं है किन्तु वे पुद्गल या पुद्गल-स्कन्ध के पर्याय माने गये हैं। अधिकरण भूत शब्द के आश्रित होते सन्ते उन हम मादि द्वारा प्रमुद्भूत होने के कारण नहीं भी देखे जा रहे स्पश रूप मादिकों का शम्द में :