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site - वार्तिक
घनद्रव्य का प्रभाव तो अन्य द्रव्यों के सद्भाव स्वरूप है, उस श्रन्य पौद्गलिक द्रव्य में चक्षुः या स्पर्शन - इन्द्रिय का व्यापार होरहा है । अतः परमार्थरूप से उस द्रव्यान्तर का प्रत्यक्ष होना तो आकाश का प्रत्क्षय हुआ नहीं कहा जा सकता है, आकाश द्रव्य अत्यन्त पराक्ष है । अवविज्ञान, मन:पर्ययज्ञान की भी उस में प्रवृत्ति नहीं है, इन्द्रियजन्य ज्ञान को कौन पूछे ? अन्धकार, उजाला, या चारों ओर घेरा, यहां वहां के चमड़ा प्रादि पौलिक पिण्ड पदार्थों को ही कूप, तिखाल, घर, गुद स्थान, कान आदि मानना चाहिये । आकाश का " इदम: प्रत्यक्ष कृते समीपतरनिष्ठ एतदो रूपं, प्रदसस्तु विप्रकृष्टे तदिति परोक्षे विजानीयात् इस नियम अनुसार प्रत्यक्ष होरहे अर्थ के वाचक इदम् शब्द द्वारा प्ररूपण नहीं होसकता है, किसी भी दार्शनिक ने श्राकाश का वहिरिन्द्रिय द्वारा प्रत्यक्ष होना स्वीकार नही किया है । इसी बात का स्पष्टीकरण यों समझो कि श्राकाश ( पक्ष ) बहिरंग इन्द्रियों से उपजे प्रत्यक्षज्ञान का विषय नहीं है, ( साध्य ) अमूर्त द्रव्य होने से ( हेतु, आत्मा, काल, आदि के समान ( अन्वयदृष्टान्त ) जो बहरली इन्द्रियों द्वारा हुये प्रत्यक्ष का गोचर है वह तो प्रमूर्त द्रव्य नहीं है, जैसे कि घट, पट, आदि शुद्ध द्रव्य हैं (व्यतिरेकदृष्टान्त) | इस कारण हमारा बाह्यइन्द्रिय प्रत्यक्षत्व हेतु प्राकाश करके व्यभिचारी नहीं है ।
स्यादाकृत ते अमूर्त द्रव्यं शब्दः परममहत्त्वाश्रयत्वादाकाशवदित्यनुमानव धिनः पक्ष इति । तदसम्म्क परममहत्त्वाश्रयत्वस्यासिद्धत्वात् तथाहि न परममहान् शब्दः श्रस्मदा - दिप्रत्यक्षत्वात् पटादिवत् न पि मुख्यप्रत्यक्षेण नममा, तस्या म्मद दिमनःप्रत्यक्षत्वासिद्धेः । संव्यवहार तोनिन्द्रियप्रत्यक्षस्य स्वसंवेनदस्य सुखादिप्रति भासिनश्चक्षुरादिपरिच्छिन्न र्थ स्मरणस्य च विशदस्याभ्यु गम त् गगनादिष्वतींद्रियेषु मान सप्रन्यदानवगमात् ।
यदि तुम मीमांसकों की यह चेष्टा होय कि शब्द ( पक्ष ) अमूर्तद्रव्य है, ( साध्य ), परम महव नामक परिणाम का श्राश्रय होने से ( हेतु ), आकाश के समान ( अन्वयदृष्टान्त ) । इस अनुमान से जैनों की "शब्द अमूर्त है" यह प्रतिज्ञा बाधित होजाती है । ग्रन्थकार कहते हैं, कि यह कुतर्क करना समीचीन नहीं है, कारण कि शब्द को परम महापरिणाम का आश्रयपना प्रसिद्ध है प्रत: तुम्हारा हेतु स्वरूपासिद्ध हेत्वाभास है, इस बात को हम यों स्पष्ट रूप से समझाते हैं, कि शब्द ( पक्ष ) परममहान नहीं है. ( साध्यदल ) हम यादि छद्मस्य जीवों के प्रत्यक्षज्ञान का विषय होने से ( हेतु ) पट आदि के समान ( अन्वयष्टान्त ) । इस अनुमान के हेतु में भी मुख्यप्रत्यक्ष का विषय होरहे प्रकाश करके व्यभिचार दोष नहीं प्राता है। क्योंकि उस आकाश को हम आदि प्रवाग्दर्शी जीवों के मन से उत्पन्न हुये प्रत्यक्ष का गोचरपना प्रसिद्ध है ।
सांख्यों के यहां मानी गयी व्यापक प्रकृति करके भी हेतु का व्यभिचार नहीं आता है, श्राकाश या सांख्यों की प्रकृति अथवा वैशेषिकों के काल द्रव्य का मतः इन्द्रिय से प्रत्यक्ष नहीं होपाता है । बात यह है, कि ‘“इन्द्रियानिन्द्रियनिमित्त देशतः सांव्यवहारिकम्, समीचीन व्यवहार के अनुरोध से मनः