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________________ श्लोक-वातिक प्रत्यक्ष प्रमाण द्वारा हम तुम सब एक प्रधान को ही नहीं देख रहे हैं क्योंकि सुख, दुःख, द्वेष, प्रयत्न, आदि अन्तरङ्ग और घट, पट आदि वहिरंग भिन्न-भिन्न हो रहे पदार्थों की उपलब्धि हो रही है पदार्थों का भिन्न-भिन्न प्रतिभास करने वाली यह उपलब्धि भ्रान्ति ज्ञान नहीं है क्योंकि कोई वाधक प्रमाण सन्मुख उपस्थित नहीं है। यदि कापिल यों कहें कि “त्रिगुणमविवेकि विषयः सामान्यमचेननं प्रसवमि," अविवेक्यादिः सिद्धस्त्रगुण्यात् तद्विपर्यायाभावात्, भेदानां परिमाणात् समन्वयात् शक्तितः प्रवृत्तेश्च, इत्यादि ग्रन्थ द्वारा हमारे पास प्रधान के अद्वैत का ग्राहक अनुमान प्रमाण विद्यमान है जो कि तुम्हारी भेद-उपलब्धि का बाधक है । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना क्योंकि उस अनुमान को यदि उस प्रधान से अभिन्न मानोगे तो उस प्रधान के समान अनुमान की भी असिद्धि हो जाने से अनुमान को उस प्रधानाद्वैत के साधकपन का अभाव हो जावेगा, अत: वह अनुमान हमारी भेदोपलब्धि का वाधक नहीं हो सकेगा। अर्थात्-जब प्रधानादत ही प्रसिद्ध है तो उससे अभिन्न माना गया अनुमान भी प्रसिद्ध है हां यदि उस प्रधान से अनुमान को भिन्न मानोगे तो उक्त दोष यद्यपि टल गया किन्तु अपसिद्धान्त हो गया, अद्वैत को साधते हुये तुम्हारे यहां प्रधान और अनुमान यों द्वैत पदार्थों की सिद्धि हो जाने का प्रसंग प्राबैठा । यदि तुम कापिल यों कहो कि दूसरे विद्वान् जैन या नैयायिकों के स्वीकार करने से न्यारे अनुमान को उस प्रकृति अद्वैत का साधक और जैनों की भेद-उपलब्धि का वाधक कह दिया है वस्तुतः हमारे यहां अनुमान प्रकृति-प्रात्मक ही है। ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना क्योंकि दूसरे के स्वीकार करने को तुमने प्रमाण नहीं माना, यदि उसको प्रमाण मान लोगे तब तो तुम और दूसरे अथवा दूसरों के माने हुये अनेक तत्वों के स्वीकार करलेने से भिन्न-भिन्न पदार्थों की सिद्धि अवश्य हो जावेगी, तिस कारण प्रधान का अद्वत मानने पर कापिलों के यहां वाधा-रहित होकर दृष्ट (प्रत्यक्ष) प्रमारणों से विरोध पाया। तथा इष्ट अनमान प्रमाण करके महत अहंकार, तन्मात्रायें आदि विकारों के प्रतिपादक पागम प्रमाण करके भी उस प्रधानाद्वैत की वाधा है। यदि उन भिन्न भिन्न अनुमान, आगम, या महदादि विकारों को झूठी अविद्यासे गढ़ लिया गया मान लोगे तो उस अनुमान या आगम प्रमाण से तुम्हारे अभीष्ट प्रधानाद्वत की भी सिद्धि नहीं हो सकेगी। प्रत्यक्ष, अनुमान, और पागम प्रमारणों के विषय नहीं हो रहे भी प्रधान का स्वयं प्रकाश, स्वरूप स्वसम्वेदन प्रत्यक्ष तो हो नहीं सकता है क्योंकि कापिलों ने प्रधान को अचेतन माना है किसी भी अचेतन पदार्थ का स्वसम्वेदन प्रत्यक्ष नहीं हो सकता है। इस कारण धर्म आदि द्रव्यों को उस प्रधान का स्वरूप हो जाना उचित नहीं है। ___एतेन शब्दाद्वैतरूपता प्रतिषिद्धा पुरुषाद्वैतरूपतायां तु तेषामजीत्वविरोधः । न च पुरुष एवेदं सर्वमिति शक्यव्यवस्थं पुरस्तादजीवसिद्धिविधानात् । इस उक्त कथन करके धर्म आदिकों का शब्दात स्वरूपपना निषेधा जा चुका समझ लेना चाहिये शब्दात पक्ष में भी दृष्ट और इष्ट प्रमाणों से वाधा आती है अर्थात्-धर्म प्रादिक यदि शब्द. स्वरूप होते तो कानों से सुनने में आते किन्तु ऐसा नहीं है तथा पाषाण, अग्नि आदि शब्दों का अर्थ के साथ अभेद मानने पर कान के फूट जाने या जलजाने का प्रसंग प्रावेगा जब कि अर्थ से शब्द
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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