SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 218
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पंचम-अध्याय २०१ कः पुनरसौ मुख्यः कालो नाम ? कोई जिज्ञासु पूछता है कि फिर भला वह मुख्य काल क्या पदार्य सम्भवता है ? समझामो तो सही। ऐसी जिज्ञासा होने पर ग्रन्थकार वार्तिकों द्वारा समाधान करते हैं। लोकाकाशप्रभेदेषु कृत्स्नेष्वेकैकवृत्तितः। प्रतिप्रदेशमन्योन्यमवद्धाः परमाणवः ॥४४॥ मुख्योपचारभेदैस्तेऽवयवैः परिवर्जिताः। निरंशा निष्किया यस्मादवस्थानात्खदेशवत् ॥४५॥ अमूर्तास्तद्वदेवेष्टाः स्पर्शादिरहितत्वतः। कालाख्या मुख्यतो येस्तिकायेभ्योन्ये प्रकाशिताः॥४६॥ अखण्ड लोकाकाश के परमाणु बराबर कल्पित किये गये सम्पूर्ण प्रभेदों पर प्रत्येक प्रदेश में एक एक कालद्रव्य की वृत्ति अनुसार परस्पर में एक दूसरे से नहीं बंध रहीं काल परमाणुयें हैं, भले ही निरन्तराल ठसाठस भर रहीं होने के कारण उन का परस्परमें संयोग बना रहे । वे कालाणुयें मुख्य या उपचार इन भेदों वाले अवयवों करके रहित हैं। अर्थात्-पुद्गल परमाणु जैसे उपचरित अवयवों करके सहित हैं, और घट, पट, आदि स्कन्ध ता मुख्य अवयवो करके सहित हैं ही वैसे अवयवों से युक्त कालाणु नहीं हैं, कालाणुयें निरवयव हैं, अत एव शों यानी अवयवों करके रहित होरहीं कालाणुयें निरंश कही जाती हैं, कालाणुये देश से देशान्तर होना स्वरूप क्रिया से रहित हैं, जिस कारण आकाश प्रदेशों के समान अवस्थित हाने से वे क्रियारहित होरहीं हैं। अर्थात-पाकाश के प्रदेश जैसे जहाँ के तहाँ स्थित हैं, वैसे ही कालाणुयें अवस्थित हैं, अथवा आकाश द्रव्य जैसे अपनी एक संख्या को नहीं छोड़ता है या आकाश के प्रदेश अपनो नियत होरही जिनहष्ट मध्यम अनन्तानन्तसंख्याका न्यून, अधिक-पना नहीं करते हुये उतने के उतने ही अवस्थित रहते हैं, उसी प्रकार कालाणयें भी पानी नियत होरही मध्यम असंख्यातासंख्यात यह इतनी परिमाणवाली संख्या का प्रतिवंतन नहीं करती हैं। तथा उन्हीं प्राकाश द्रव्य या आकाश प्रदेशों के समान वे कालाणुये भो अमूर्त इष्ट की गयी हैं,क्योंकि वे स्पर्श रस, गन्ध आदिसे रहित हो रही हैं हाँ कालाणुगोंमें ठोक धन समचतुरस्र छह पैलू बरफीके प्राकार वालो पुद्गल परमाणु के समान प्राकृति अवश्य है । जगत् में ऐसी कोई वस्तु नहीं है, जिसकी कुछ न कुछ लम्बाई, चौड़ाई, मोटाई नहीं होय, सम्पूर्ण द्रव्यों में पाये जा रहे प्रदेशवत्वगुण के विकार होरही आकृति का होना अनिवार्य है, इस प्रकार सूत्रकार ने धर्म, अधर्म आकाश, व्यों के लिये "नित्यावस्थितान्यरूपाणि" "निष्क्रियाणि च" सूत्रों करके जो विधान किया है वह विधान प्रन्थकार ने काल द्रव्य में भी व्यवस्थित कर दिया है, हाँ "अजीवकाया धर्माधर्माकाशपुद्गलाः" इस सूत्र द्वारा धर्म प्रादिकों में जो प्रदेश प्रचय होने से कायपन की विधि को है, वह सर्वदा परमाण के
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy