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________________ १८२ श्लोक- वार्तिक परिणाम उस श्रात्मा श्रादि का है, यह किससे निर्णीत किया जाय बताश्रो ? यदि तुम नित्यैकान्तवादी यों कहो कि भिन्न पड़ा हुआ भी अतिशय उस आत्मा के श्राश्रय पर प्राश्रित है, अतः वह श्राधेय हो रहा अतिशय उस अधिकरण भूत श्रात्मा का कहा जा सकता है । यों कहने पर तो हम जैन कहते हैं कि एक स्वभाव वाले कूटस्थ ग्रात्मा आदिक वस्तुयें कभी तो किसी एक अतिशय के श्राश्रय होजांय और कदाचित् किसी अन्य अनित्य अतिशय के आधार होजांय यह किस प्रकार सम्भावना होसकती है ? अर्थात् एक स्वभाव वाला पदार्थ एक ही अतिशय को धार सकेगा भिन्न भिन्न काल में न्यारे २जन्य प्रतियों को नहीं धार सकेगा क्योंकि कूटस्थ नित्य पदार्थ ठीक एकसा ही रहता है यदि नित्यं - कान्तवादी इस पर यों कहैं कि आत्मा ग्रादिक किसी विशेष स्वभाव से कभी कभी किसी किसी प्रतिशय के प्राश्रय होजायंगे यों कहने पर हम जैन आपादन करते हैं. कि जिस विशेष स्वभाव करके वह आत्मा पदार्थ किसी एक अतिशय का श्राश्रय है । अथवा जिस स्वभाव करके किसी दूसरे अतिशय का वह उस समय श्राश्रय नहीं है, वह स्वभाव विशेष उस कूटस्थ श्रात्मा से यदि अभिन्न होगा तव तो उस आत्मा के कूटस्थनित्यपन के एकान्त का विरोध होजावेगा क्योंकि वह स्वभाव विशेष तो सर्वदा नहीं ठहरेगा, उससे भिन्न ग्रात्मा भी कथंचित् अनित्य बन जायगा, स्वभाव विशेषको कारणों से जन्य ही तो मानोगे । हां यदि वह स्वभावविशेष उस श्रात्मासे भिन्न होगा तब कूटस्थनित्यपन तो उसका रक्षित रह गया किन्तु सर्वथा भिन्न पड़ा हुआ " वह स्वभावविशेष उस आत्मा का है " यह कैसे व्यवहृत कर लिया जाय ? सर्वथा भिन्न पड़ा हुआ पदार्थ या तो किसी का भी नहीं है । अथवा सबका उस पर एकसा अधिकार है । यदि नित्य एकान्त-वादी यों कहैं कि आश्रय आत्माके वह स्वभाव विशेष प्रश्रित होरहा है, इस कारण " वह स्वभावविशेष उस आत्मा का है " ऐसा व्यवहार कर लिया जाता है । जैसे कि श्राश्रित होने से जिनदत्त का सेवक देवदत्त कह दिया जाता है । यों कहने पर तो हम जैनों को कहना पड़ता है कि पुनः वही तर्क चलाया जायगा कि वह एक स्वभाववाला नित्य श्रात्मा कभी कभी न्यारे न्यारे स्वभावविशेष या अतिशयों का श्राश्रय कैसे हो सकता है ? इस पर आपकी ओर से वही स्वभाव विशेष उत्तर कहा जायगा, यों वही तर्क और समाधान अनुसार आकांक्षाशान्ति नहीं होने के कारण अनवस्था दोष होजायगा । बहुत दूर भी जाकर स्वभाव विशेष को उस स्वभाववान् आत्मा से कथंचित् अभिन्न होरहा स्वीकार करोगे तब तो उस श्रात्मा से भिन्न माना जा रहा प्रतिशय स्वरूप परिणाम किस प्रकार उस ग्रात्मा के प्राश्रित होसकेगा श्रर्थात् - - जब स्वभाव विशेष अभिन्न होकर ही उस आत्मा के श्राश्रित होसकता है, उसी प्रकार भले ही अतिशय स्वरूप परिणाम माना जाय किन्तु वह श्रात्मा श्रादि से कथंचित् प्रभिन्न ही होगा और ऐसी दशा में कूटस्थनित्यपन का एकान्त रक्षित नहीं रहा । यो यथा यत्र यदा यतोतिशयस्तस्य तथा तत्र तदाश्रयीभाव इत्येवंरूपकस्वभावत्वादात्मादिभावस्यादोष एवेति चैत्र कात्मादिभावपार व ल्पनात् विरोधः पृथिव्याद्यतिशयानामेकात्मातिशयत्वप्रसंगात् । शक्यं हि वक्तुमेक एवात्मैवंभूतं स्वभावं विक्ततिं येन यथा यदा पृथिव्याद्यतिशयाः प्रभवंति तेषां तथा तत्र तदाश्रयो भवतीति । तदतिशया एव तेन पुनरन्यद्रव्यातिशय इति । द्रव्यांतराभावे कुतोतिशयाः स्युरात्मनीति चेत्, अतिशयांतरेभ्यः एवं चान्येपि परेभ्योतिशयेभ्य इत्यनाद्यतिशयपरम्पराभ्युपगमादनुपालम्भः ।
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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