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________________ श्लोक-वातिक नहीं मानने पर स्वसम्वेदनाद्वैत, चित्राद्वैत आदिका अभाव होजावेगा, कोई रोक नहीं सकता है विदित अंश जाना नहीं जा सकता है और अविदित अंश भी नहीं जाना जाता, तबतो कुछ भी नहीं जाना जाता है। न संवित्संविदेवेति स्वतः समवतिष्टते। ब्रह्म ब्रह्मैव वेत्यादि यथाऽभेदाप्रसिद्धितः २५॥ सम्वेदन सम्वेदनस्वरूप ही है इस प्रकार सम्वेदनाद्वैत को अपने आप ही से व्यवस्था नहीं होजाती है जैसे कि ब्रह्म ब्रह्म ही है, शब्द शब्द ही है, इत्यादि व्यवस्थायें स्वतः नहीं प्रतिष्ठित होपाती तुम्हारे यहां मानी गयीं हैं। बात यह है कि अभेद-वादियों के मन्तव्य अनुसार उस अभेद की प्रमारणों से प्रसिद्धि नहीं है । यदि सम्वेदनाद्वैतवादी अपने सम्वेदनकी स्वतः सिद्धि स्वीकार करेंगे तो ब्रह्माद्वैतवादी भो अपने परम ब्रह्मकी स्वत:सिद्धि अभीष्ट करलेंगे, शब्दाद्वैत-वादी भी आडटेंगे, यों सभी अनिष्ट तत्वों की स्वत:सिद्धियां होने लगेंगी। तत्स्वसंवेदनस्यापि संतानमनुगच्छतः। परेण हेतुना भाव्यं स्वयं वृत्यात्मनां न सः ॥२६॥ वर्तनैवं प्रसिद्धा स्यात्परिणामादिवत् स्वयं । ततः सिद्धान्तसूत्रोक्ताः सर्वेमी वर्तनादयः॥२७॥ तिस कारण स्वसम्वेदन की भी सन्तान को अनुगमन कर मान रहे बौद्धों के यहां उस संतान को चलाने का कोई दूसरा हेतु होना चाहिये । अतः कालद्रव्य का मानना आवश्यक है। हां जो स्वयं वर्तना स्वरूप परिणमरहे पदार्थ हैं, उनका वर्तयिता वह काल कोई न्यारा हेतु नहीं है । इस प्रकार बौद्ध अथवा कोई भी दार्शनिक हो उनके यहां पदार्थकी वर्तना प्रसिद्ध हो ही जाती है जैसे कि परिणाम प्रादिक स्वयं प्रसिद्ध मानने पड़ते हैं। तिस कारण सिद्धान्त सूत्रों में वे सभी वर्तना, परिणाम, आदिक बहुत अच्छे कहे गये हैं, किसी भी प्रमाण से वाधा उसस्थित नहीं होती है। अत एवाह इस ही कारण से ग्रन्थकार अग्रिम वार्तिक में यों स्पष्ट कह रहे हैं कालस्योपग्रहाः प्रोक्ता ये पुनर्वर्तनादयः । स्यात्त एवोपकारोतस्तस्थानुमितिरिष्यते ॥२८॥ फिर जो सूत्रकार ने कालके वर्तना, परिणाम प्रादिक उपग्रह बहुत अच्छे कहे हैं । वे ही वर्तना प्रादिक काल के उपकार होसकते हैं । इन वर्तना आदिक ज्ञापक लिंगों से उस अतीन्द्रिय काल का अनमान होजाना अभीष्ट किया जाता है, जैसे कि पूर्व सूत्रों के अनुसार धर्म आदिक का अनुमान किया जा चुका है।
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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