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________________ 15 १६२ श्लोक-वार्तिक स्वसंविदद्वयं तत्वमिच्छतः सांप्रतं कथम् सिद्धन्न वर्तमानोस्य कालः सूक्ष्मः स्वयंप्रभुः ॥१६॥ जो बौद्ध बहिरंग सम्पूर्ण पदार्थों को नहीं मान कर स्वसम्वेदनाद्वत को ही तथ्व इच्छते हैं उनके यहां वर्तमान काल में वर्त रहा सम्वेदनाद्वत भला किस प्रकार सिद्ध नहीं होगा ? और ऐसा मानने पर इस सम्बेदनाद्व तका स्वयं प्रभु होरहा और परम सूक्ष्म वर्तमान काल सिद्ध नहीं होवे ? यानी वर्तमानकाल श्रवश्य सिद्ध होजावेगा । क्षणिक - वादी बौद्धों को बड़ी सुलभता से वर्तमान क्षण इष्ट करना पड़ेगा कारणकि वर्तमान क्षरणमें पदार्थकी सत्ता पाते हुये उन्होंने दूसरे क्षरण में पदार्थों का स्वभाव से होरहा विनाश इष्ट किया है "द्वितीयक्षणवृत्तिध्वंसप्रतियोगित्वं क्षणिकत्वं । ततो न भाविता द्रक्ष्यमाणता नाप्यतोतता । दृष्टता भाव्यतीतस्य कालस्यान्यप्रसिद्धितः ॥ १७॥ तिसही कारण भविष्य में दशनका विषय होजाना यह दृक्ष्यमारणता ही भविष्यता नहीं है और तिस ही कारण दृष्टता ही प्रतीतपना भी नहीं है क्योंकि अन्य भो भविष्य में होने वाला भावी काल मौर होचुके अतीत काल के प्रांत प्रोत चले आ रहे ग्रन्वय की प्रसिद्धि हो रही है। ज्ञान करके देखा जाचुकापन या देखाजायगापन केवल इतना स्वभाव ही भूतकाल या भविष्यकाल नहीं है किन्तु यथार्थ में पदार्थों के परिणमथिता भूत, वर्तमान, भविष्य, काल हैं । गतं न गम्यते तावदागतं नैव गम्यते । गतागतविनिर्मुक्तं गम्यमानं न गम्यते ॥ १८ ॥ इत्येवं वर्तमानस्य कालस्याभावभाषणं । स्ववाग्विरुद्धमाभाति तन्निषेधे समत्वतः ॥ १६॥ निषिद्धमनिषिद्धं वा तद्वयोन्मुक्तमेव वा । निषिध्यते न हि कैवं निषेधविधिरेव वा ॥ २० ॥ कोई पण्डित कहते हैं कि कोई पथिक मार्ग में गमन कर रहा है जितना मार्ग वह गमन कर चुका है वह फिर गमन नहीं किया जाता है क्योंकि वह गत होचुका और जो भविष्य में आने योग्य मार्ग है वह भी गमन नहीं किया जा सकता है कारण कि वह तो भविष्य काल में गमन किया जावेगा अब गत और प्रगत मार्गसे रहित कोई गम्यमान स्थल शेष नहीं रहा तो वह नहीं गमन किया जायगा ऐसी दशा में गत और गमिष्यमारण से प्रतिरिक्त वर्तमानका कोई गम्यमान शेष नहीं रहता है । आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार जो पण्डित वर्तमान कालके प्रभाव को बखानते हैं उनका भाषण स्ववचन- विरुद्ध प्रतीत होरहा है क्योंकि उस वर्तमानके निषेधमें मा समान रूपसे वैसे ही प्रक्षेप प्रवर्त जाता है हम जैन उन वर्तमान काल का निषेध करने वाले पण्डितों से पूछते हैं कि माप निषिद्ध
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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