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श्लोक - वार्तिक
तथैव स्वात्मसद्भावानुभूतौ सर्ववस्तुनः । प्रतिक्षणं वर्हिर्हेतुः साधारण इति धुवम् ॥ ६ ॥ प्रसिद्धद्रव्यपर्यायवृत्तौ वाह्यस्य दर्शनात् । निमित्तस्यान्यथाभावाभावान्निश्चीयते बुधैः ॥ १० ॥
हम सारिखे अल्पज्ञ जीवों के यहां प्रत्यक्ष प्रमाणसे प्रसिद्ध नहीं भी होरही वर्तना तिस प्रकार व्ययहारोपयोगी कार्य के देखने से अनुमित होजाती है। जिस प्रकार कि चावलों का अग्निसंयोग अनुसार खदर, वदर, होकर पकना - स्वरूप पाक की प्रसिद्धि होजाने से यह अनुमान प्रवर्त जाता है कि भात इस नाम को धारने वाली पर्याय का पूर्व में प्रत्येक क्षण में सूक्ष्म रूप से चावलों का पाक हुआ है । अन्यथा यानी प्रतिक्षण सूक्ष्मरूप से पाक होना यदि नहीं माना जायगा तो इष्ट होरहे पाक की सभी प्रकारों से सिद्धि नहीं होसकती है । भावार्थ - प्रत्येक क्षण में सूक्ष्म परिणाम करता हुआ बालक जिसप्रकार युवा होजाता है । उसी प्रकार अग्नि द्वारा चावलों को पकाने पर भी क्रम क्रम से सूक्ष्म पाक होते होते भात बन सका है, अन्यथा नहीं । अतः उन अतीन्द्रिय सूक्ष्म पाकों का जैसे अनुमान कर लिया जाता है । उसी प्रकार वर्तना का अनुमान कर लिया जाता है । सम्पूर्ण वस्तुओं के प्रत्येक क्षण में होने वाले अपने निज सद्भाव के अनुभव करने में कोई साधारण वहिरंग हेतु है । यह निश्चित मार्ग है, द्रव्यों की प्रसिद्ध होरहीं पर्यायों के वर्तने में भी वहिरंग निमित्त कारण देखा जाता है । अन्यथा उन पर्यायों के भाव का अभाव है, अतः अन्यथानुपपत्ति द्वारा विद्वानों करके उस प्रतीन्द्रिय भी वर्तना का निश्चय कर लिया जाता है, वह वर्तना काल द्रव्य करके किया गया उपकार है ।
श्रादित्यादिगतिस्तावन्न तद्धेतुर्विभाव्यते ।
तस्यापि स्वात्मसत्तानुभूतौ हेतुव्यपेक्षणात् ॥ ११ ॥
मुख्य काल को नहीं मानने वाले श्वेताम्बर कहते हैं कि सूर्य चन्द्रमा आदि की गति या ऋतु अवस्था, आदि उस वर्तना की प्रयोजक हेतु होजायगी । इस पर ग्रन्थकार कहते हैं, कि सूर्य आदि की गति तो उस वर्तना का हेतु नहीं है। यह बात यों विचार ली जाती है कि उन सूर्य आदि के गमन या ऋतु की भी स्वकीय निज सत्ता के अनुभव करने में किसी अन्य हेतु की विशेषतया अपेक्षा होजाती है । अतः अन्य हेतु काल द्रव्य का मानना श्वेताम्बरों को भी आवश्यक पड़ेगा ।
न चैवमनवस्था स्यात्कालस्यान्या व्यपेक्षणात् ।
स्ववृत्तौ तत्स्वभावत्वात्स्वयं वृत्तेः प्रसिद्धितः ॥ १२ ॥
यदि कोई यों कहे कि धर्मादिक की वर्तना कराने में काल द्रव्य साधारण हेतु है और काल द्रव्य की वर्त्तना में भी वर्त्तयिता किसी अन्य द्रव्य की आवश्यकता पड़ेफ़ी और उस अन्य द्रव्य की वर्तना कराने में भी द्रव्यान्तरों की आकांक्षा बढ़ जानेसे अनवस्था दोष होगा । ग्रन्थकार कहते हैं कि हमारे यहां इस प्रकार अनवस्था दोष नहीं आता है क्योंकि काल को अन्य द्रव्य की व्यपेक्षा नहीं है अपनी वर्तना करने में उस काल का बहो स्वभाव है क्योंकि दूसरों के वर्तन कराने के समान काल द्रव्य की स्वयं