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श्लोक-वार्तिक
कैसे ठहरी रही? तथा घट के फूट जाने पर वह तुम्हारी नित्य, व्यापक, मानीगयी सत्ता विचारी विना आश्रय के कैसे ठहरी रह सकती है ?
अतः "नित्यमेकमनेकानगतं सामान्य" यह लक्षण ठीक नहीं है। हां " सहशपरिणामस्तिर्यक सामान्यं " यह लक्षण समुचित है । जगत् में प्रत्येक पदार्थ की सत्ता न्यारी न्यारी है, हां सदृश होने मे उन अनेक सत्ताओं में एकपन का उपचार भले ही कर लिया जाय जैसे कि दूसरे दिन भी उसी शीशी में से औषधि दे देने पर रोगी कह देता है कि वैद्य जी ! यह तो वही औषधि है, जो कि कल खाई थी किन्तु कल वाली औषधि तो कल ही खाई जा चुकी है। यह तो उसके सदृश है, इसी प्रकार सत्ता में एकपन का व्यवहार होजाता है। अपने अपने न्यारे न्यारे अगुरुलघु गुण-अनुसार अस्तित्व गुण की परिणति होरही सत्ता भी न्यारी न्यारी है। 'स्वपरादानापोहनव्यवस्थापाद्यं खलु वस्तुनो वस्तुत्वं' सभी वस्तयें अपने अंशों को पकडे रहती हैं. और दूसरों के सत्वों का परित्याग करती रहती हैं किसी के भी न्यारे न्यारे अंशों का अन्य किसी के साथ सम्मिश्रण या एकीभाव नहीं होसकता है । ऐसी स्वकीय स्वकीय सत्ता की जो अनुभूति यानी एकतानता है, वह वर्तना है। कर्म में युच करने पर वाया जा रहापन होने से वह वर्तना कह दी जाती है । अथवा भाव में युच करने पर केवल वर्ता देना इस क्रिया मात्र से वह वर्त्तना कह दी जाती है।
भावार्थ-प्रत्येक पदार्थ प्रति समय उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य स्वरूप परिणमन करता सन्ता अपनी निज सत्ता का एक रस लेरहा वर्तना में निमग्न है उस वर्तना का उपादान कारण वह वह पदार्थ है। हां वर्तना का निमित्त कारण कालद्रव्य है अतः काल द्रव्य का उपकार वर्तना इष्ट की गयी है। विशेष यह कहना है, कि कई विद्वान् जैसे धर्म द्रव्य गति कराने में उदासीन निमित्त है उसी प्रकार वर्तना कराने में कालको उदासीन कारण मान लेते हैं । फिर भी वर्तयिता या परिणमयिता काल का निमित्त'पना कुछ प्रेरकता को लिये हुये है, सभी कारणों को एक ही ढंग से कार्य करने के लिये नहीं हांका जाता है। घट की उत्पत्ति में कुलाल, चक्र, डोरा, मिट्टी, अदृष्ट, रासभ, दण्ड प्राकाश, काल ये सब न्यारे न्यारे कर्तव्यों द्वारा कारण होरहे हैं। निगोदराशि से जीव को निकाल कर व्यवहार राशि में लाने के अवसर पर कालाणुओं का प्रभाव (जौहर) अनुमित होजाता है । सम्यक्त्वादि की प्राप्ति या नियत काल में फल, पुष्प, तृण, वल्ली आदि के लगने अथवा ऋतु परिवर्तन में जहाँ काल लब्धि को कारण माना गया है। एवं अष्टमी, चतुर्दशी पर्व अष्टान्हिका, दशलक्षण पर्व, कल्याण दिवस आदि की शक्तियों का निरूपण है। वहां व्यवहार काल की भी सामर्थ्य का अनुमान लगाया जा सकता है, " दव्वपरिवट्ट रूवो जो सो कालो हवेइ ववहारो" (द्रव्य संग्रह) गति कराने में धर्म द्रव्य की उदासीनकारणता और उक्त कार्यों में काल की निमित्त-कारणता का अन्तर स्पष्ट है।
अन्त तकसमयः स्वसत्तानुभवो भिदा। यः प्रतिद्रव्यपर्यायं वर्तना सेह कीर्त्यते ॥ १॥ यस्मात्कर्मणि भावे च गयंताद्वर्तेः स्त्रियां युचि । वर्तनेत्यनुदात्ताच्छील्यादौ वा युचीष्यते ॥२॥