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________________ पंचम-अध्याय चेत् तदुभयस्वभावत्वोपपत्तेः । प्रदेशित्वस्वभास्त्वस्याति स्कंधावस्थायां तद्भावान्यथानुपपत्तेः प्रदेशत्वस्वभावः पुद्गद्रव्यत्वात् । एकेन प्रदेशेन पुद्गलद्रव्यस्याप्रदेशित्वे द्वयादिप्रदेशैरप्यप्रदेशिवप्रसंगात् विरुद्धं चेदं परमाणु रेकप्रदेशोऽप्रदेशी चेति प्रदेशप्रदेशिनोरन्योन्याविनाभावात् प्रदेशिनमंतरेण प्रदेशस्यासंभवात् खपुष्पवत् प्रदेशमंतरेण च प्रदेशिनोनुपपत्तेस्तद्वदेव । एक प्रदेशवाला भी अणु नहीं होता है, यह कहना तो उचित नहीं है क्योंकि यों तो उस परमाणु के अवस्तुपन का प्रसंग पाजावेगा सर्वथा एक भी प्रदेश से रहित तो खर--विषाण आदि असत् पदार्थ ही हैं। यहां किसी की शंका है, कि यदि अणु को एक प्रदेशस्वरूप माना जायगा तो भला प्रदेशवाला प्रदेशी यहां कौन पदार्थ होसकेगा? प्रदेशी के बिना कोई एक भी प्रदेश स्थिर नहीं रह सकता है । इसके उत्तर में ग्रन्थकार कहते हैं, कि स्पर्श, रस, आदि गुणों का आश्रय होने से वह गुणवान् परमाणु ही प्रदेशी है, ऐसा हम जैन सिद्धान्ती सिंहगर्जना करते हुये बोलते हैं। शंकाकार पुन: कहता है, कि वह प्रदेश होरहा ही परमाणु भला प्रदेशी किस प्रकार हो सकता है ? क्योंकि विरोध है, स्वयं धन ही तो धनवान् नहीं होजाता है, स्वयं बच्चा बच्चे--वाला नहीं है। यों कहने पर तो ग्रन्थकार कहते हैं कि उस परमाणु में दोनों स्वभावों से सहितपना बन रहा है। देखिये प्रदेशीपन स्वभाव तो इस परमाणु के विद्यमान है. अन्यथा स्कंध अवस्था में परमाणुषों के उस प्रदेशीपन भाव की सिद्धि नहीं होसकेगी, परमाणु में प्रदेशीपन आत्मभूत है । तभी तो कतिपय परमाणुओं के बंधजाने पर स्कन्ध दशा में वह प्रकट हो जाता है, तथा पुद्गल द्रव्य होने से प्रदेशपन स्वभाव स्पष्ट ही है । शुद्ध पुद्गल द्रव्य एक प्रदेश स्वरूप परमाणु ही तो है, यदि पुद्गल द्रव्य को एक प्रदेश करके प्रदेशीपना नहीं माना जायगा तो दो, तीन, आदि प्रदेशों करके भो उसके अप्रदेशीपन ( प्रदेशी नहीं होसकने ) का प्रसंग आवेगा। यहां किसी का यह कहना विरुद्ध हैं कि परमाण एक प्रदेश वाला होरहा आप्रदेशी है, जैन--सिद्धान्त अनुसार प्रदेश और प्रदेशी का परस्पर में अविनाभाव होरहा है। प्रदेशी के विना प्रदेश का असम्भव है, जैसे कि आकाश का फूल प्रदेशी नहीं होता स्वयं प्रदेश भी नहीं है। तथा प्रदेश के विना प्रदेशी की भी सिद्धि नहीं है, उस ख पुष्प के समान हो समझलो अतः प्रदेश होता हुआ भी परमाणु प्रदेशी है । तत एव न प्रदेशो नापि प्रदेशी परमाणुरिति चेन्न, द्रव्यत्वविरोधात गुणादिवत् । न चाद्रव्यं परमाणुगुणव स्वात् स्कधवत् । न चाप्रदेशप्रदेशिस्वभाव किंचिद्व्यं सिद्ध । गगना दिसिद्धमिति चेन्न, तस्यानंतादिप्रदेशत्वसाधनेन प्रदेशित्वव्यवस्थापनात् । यहां नैयायिक कहते हैं तिस ही कारण यानी प्रदेश और प्रदेशी का अविनाभाव होने से हमारे यहां परमाणु प्रदेश स्वरूप भी नहीं है। और प्रदेशवान् भी परमाणु नहीं माना गया है । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना क्योकि यों कहने से परमाणु के द्रव्यपन का विरोध होजायगा जैसे कि गुण, कर्म आदिक पदार्थ प्रदेश न होते हुये भी प्रदेशी नहीं हैं। अतः वे द्रव्य नहीं हैं, इसी प्रकार परमाणु भी द्रव्य नहीं हो सकेगा किन्तु यह परमाणु अद्रव्य तो नहीं है । क्योंकि स्पर्श आदि
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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