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________________ श्लोक- वार्तिक विशेष, समवाय और प्रभाव पदार्थ स्वरूप भी नहीं हैं क्योंकि अनुवृत्तिप्रत्यय आदि के हेतुपन का अभाव है, अर्थात् - यह घट है, और यह घट है, तथा यह भी घट है. इत्यादिक अनुवृत्ति प्रत्यय का हेतु जैसे घटत्व सामान्य है, वैसे ग्रनुवृत्त ज्ञान के कारण प्रदेश नहीं हैं और यह इससे व्यावृत्त है, यह इससे व्यावृत्त है, ऐसे व्यावृत्तिज्ञान के कारण नहीं होने से वे प्रदेश विशेष पदार्थ भी नहीं हैं अयुत सिद्ध पदार्थों का " यहां यह है " इस ज्ञान के कारण नहीं होने से वे प्रदेश समवाय पदार्थ भी नहीं हैं, भाव पदार्थ - स्वरूप प्रदेश भला प्रभाव पदार्थ - स्वरूप कैसे होसकते हैं ? । गुणवान् होने से भी प्रदेश इन सामान्य कादि पदार्थ स्वरूप नहीं हैं क्योंकि सामान्य यादि में गुण नहीं पाये जाते हैं । यदि वैशेषिक यों कहैं कि आकाश के प्रदेश इन छह पदार्थों से अतिरिक्त अन्य पदार्थ स्वरूप होजायगे ग्रन्थकार कहते हैं । कि यह इनका कहना प्रयुक्त है क्योंकि " जगत् के सम्पूर्ण भाव पदार्थ छह ही हैं " जो कि द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय, उनके यहाँ माने गये हैं, इस नियम का विरोध होजायगा । ८४ अत एव न मुख्याः खम्य प्रदेशा इति चेन्न, मुख्यकार्यकरणदर्शनात । तेषामुपचरितत्वे तदयोगात् । न ह्यु पचरितोग्निः पाकादावुपयुज्यमानो दृष्टस्तस्य मुख्यत्वप्रसंगात् । प्रतीयते च मुख्य कार्यमनेकपुद्गलद्रव्याद्यवगाहकलक्षणं । पुनः वैशेशि यदि यों कहैं कि इस ही कारण यानी छह पदार्थों के नियम का विरोध नहीं होय, अतः आकाश के प्रदेश वास्तविक मुख्यपदार्थ कोई नहीं हैं, कल्पित या उपचरित हैं । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना क्योंकि उन प्रदेशों करके मुख्य कार्य का करना देखा जाता है, वस्तुभूत कार्य का कारण उपचारितपदार्थ नहीं होसकता है, उन प्रदेशों के कल्पित होने पर उस मुख्य कार्य के किये जाने का प्रयोग है। देखिये मिट्टी का अग्नि रूप बना हुआ खिलौना या श्रग्नि का चमकीले पदार्थ में पड़ाहु प्रतिविम्ब अथवा “अग्निर्माणवकः " आदि उपचरित अग्नि है, यह कल्पित अग्नि पकाने, जलाने, सुखाने आदि कार्यों में उपयोगी होरही नहीं देखीगयी है, यदि कल्पित अग्नि पाक आदिको कर देती तो उसको मुख्य श्रग्निपनेका प्रसंग आजावेगा किन्तु श्राकाशके प्रदेशोंसे होरहा अनेक पुद्गलद्रव्य, जीवद्रव्य प्रादिका अवगाह कर देना स्वरूप मुख्य कार्य प्रतीत होता है । निरंशस्यापि विभुग्वात्तद्युक्तमिति चेत् कथं विभुनिंरंशो वेति न विरुद्धयते । ननु प्रमाणसिद्धत्वाद्वादिप्रतिवादिनोराकाशे विभुत्वाभावान्न विप्रतिषिद्धं । तत एव निरंशत्व सिद्धिः । तथाहि - निरंशमाकाशादि सर्वजगद्व्यापित्वात् यन्न निरंशं न तत्तथा दृष्टं यथा घटादि सर्वजगद्व्यापि चाकाशादि तस्मान्निरंशमिति कश्चित् । तदसमीचीनं, हेतोः पक्षाव्यापकत्वात् परमाणौ निरंशे तदभावात् । यदि वैशेषिक यों कहें कि मुख्य प्रदेशों से रहित होरहे निरंश भी प्रकाश के व्यापक होने के कारण वह अनेक द्रव्यों को अवगाह देना युक्त बन जाता है । यों कहने पर तो प्राचार्य कहते हैं कि आकाश को विभु कहना और निरंश कहना यह किस प्रकार पूर्वापर विरुद्ध नहीं पड़ेगा ? अर्थात् - 1
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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