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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः - अनुसार स्थितियों को विचित्रता बताई गयी है । श्री अफलंक देव महाराजने चौथे अध्यायके अन्त में गजवातिकौ जसे अन्तका विस्तत निरूपश किया है, उसी प्रकार श्री विद्यानन्द माचार्य ने एक एक द्रव्यको नाना स्वमात्र आमा साधा है। जन्म अस्तित्व आदि छह विका. रोंको सम्पूर्ण पदार्थ धारते हैं। अभावरिल अशाव हेतुका अच्छा विचार किया है । नित्यकान्त और क्षणक एकान्तका खण्डनकर द्रव्य, पर्याय, आत्मक वस्तु का निस्यानित्यात्मकपन प्रसिद्ध किया गया है। अन्य भी कतिपय अकलंक हेजोंसे जीवतत्वका एक अनेकात्मकपना साधते हए चौथे अध्याक्तक नय प्रमाणोंद्वारा जीवतत्वको व्यवस्था कर दी गयी समझाई है। चौथे पध्य यके छ टसे द्वितीय आन्हिक को पूर्ण किया है । लौकान्तिकानामष्टो सागरोपमागि सर्वेषा" यह सूत्र उमास्वामिकृत है। इस विषय में श्री विद्यानन्द आचार्यका विशेष आदर नहीं अनुमित होता है । यों तत्त्वार्थश्लोकवाकालंकार महान् ग्रन्थमें बो आन्हिकोद्वारा चौथे अध्यायकी समाप्ति की गई है। लेश्येन्द्राविककल्पनास्थितिवपुःसम्याद्यदृष्टर थलीसंसारस्थचतुर्णिकायसरणो नानास्वशक्त्यंचितः । जन्मास्त्यादिविकारमृद्वहुवचो विज्ञानदृग्गोचरोऽ।। ध्याये तुर्य इलाहितनिगदितो जीषा श्युमास्वामिभिः ।। १ ।। दृग्जाननयभावाभेदवल्लोकसंस्थितं । सूत्रि, चतुरप्याय्यां जीवतत्त्वं प्रभेदभृत् ।। २ ।। इति श्री विद्यानंदिआचार्यविरचिते तत्वार्थश्लोकवातिकालंकारे चतुर्थोऽध्यायः समाप्तः । * समाप्तोयं पंचमो भागः।
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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