________________
तत्वार्थ लोकवातिके
नहीं माना जाय तो कूटस्थ आत्मा में जैसे परमार्थ सत्त्व नहीं है या आकाश में पुष्प की जैसे वस्तुभूत सत्ता नही है, वैसे ही चेतन जीव के वास्तविक सपना नहीं बन सकता है।
६७२
स्वभावांतरेणोपपत्तिरेव परिणामो वृद्धिश्चाधिक्येनोत्पत्तिरपक्षयस्तु विनाश एवेति न षड्विकारो जीव इति चेन्न अन्वितस्वभावापरित्यागेन सजातीयेतरत्व भाषांतर मात्र प्राप्तेः परिणामत्वादाधिवये नोत्पत्तेश्च वृद्धित्वाद्देशतो विनाशस्यापक्षयत्वात्परिणामादीनां विनाशोत्पादास्तित्वेभ्यः कथंचिद्भेदवचनात् ।
बोद्ध कहते हैं कि किसी भी पदार्थ का अन्य न्यारे स्वभावों करके बन जाना ही तो परिणाम है और विद्यमान स्वभावों से अधिकपने करके उत्पत्ति होजाना वृद्धि है । अपक्षय तो विनाश ही है । यों परिणाम तो अस्तित्व में और वृद्धि जन्म में तथा अक्षय विनाश में गति हो जाते हैं । इस कारण तीन विकारों वाला ही जीव हुआ। छह विकारोंवाला जीव सिद्ध नहीं हो सका । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना। क्योंकि तुम्हारा किया गया यह परिणाम, वृद्धि, अपक्षयोंका लक्षण बहुत बढिया नही है । सिद्धान्तमुद्रा से इनका लक्षण यह है कि माला में सूत के समान ओतपोत हो रहे अन्वित स्वभावोंका परित्याग नहीं करके सजातीय और उनसे भिन्न विजातीय ऐसे न्यारे न्यारे स्वभावों की केवल प्राप्ति होजाना परिणाम है और द्रव्यके स्वरूप हो रहे स्वभावों का त्याग नहीं कर स्वभावों की अधिकपने करके उत्पत्ति होजाना वृद्धि नामका विकार है तथा ध्रुव स्वभावोंका परित्याग नहीं कर एकदेश से कतिपय अंशों का विनाश होजाना अपक्षय है। अतः परिणाम आदि तीन विकारों का विनाश, उत्पाद, अस्तित्व, इन तीन त्रिकारों से कथंचित् भिन्नपने से निरूपण किया गया है। अतः जीवके छहों विकार मानना समुचित है। उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यों की साध्य अवस्था और साधन अवस्थाओं पर लक्ष्य देनसे जीववस्तु या अन्यवस्तुओं के छह विकार सुलभतया सध जाते हैं ।
जीवस्यान्वितस्वभावासिद्धे ये योक्तपरिणामाद्यनुपपत्तिरिति चेन्न, तस्य पुरस्तादन्वितस्वभावस्य प्रमाणतः साधनात् । ततो न जीवस्यैकानेकात्मकत्वे साध्ये सत्त्वादित्ययं हेतुरसिद्धोऽनंकांतिको विरुद्धो वा जन्माद्यनेक विकारात्मकत्वापायेऽन्विर्तकत्वभावा नः वे च सर्वथा सत्त्वानुपपत्तेः ।
द्ध कहते है कि सर्वथा क्षणिक होने के कारण जीव के सदा अन्वित हो रहे स्वभावों की सिद्धि नहीं हो पाती हैं। इस कारण पूर्व में कहे अनुसार परिणाम आदिका युक्तिपूर्वक बनन नहीं होता है । अर्थात् आप जैनोंने अन्वित स्वभावों का परित्याग नही करना तो परिणाम आदिकों का घटकावयव बना दिया है । केवल एकक्षण ठहर कर द्वितीयक्षण में समूल चूल नष्ट होजाने वाले क्षणिक पदार्थ में अन्वित स्वभाव नहीं पाये जाते हैं। प्रति दिन दो आनं कमाकर दोनोंही आनों का व्यय कर देनेवाले घसखोदा के यहाँ संचित द्रव्य नहीं मिलता है । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना। क्योंकि पूर्वप्रकरणों में उस जीव पदार्थ के अन्वित हो रहे स्वभावों की प्रमाणसे सिद्धि कर दी गयी है । अनादि, अनिधन, अन्वेता, भाव, जीवद्रव्य है । इसको अकाट्य युक्तियों से साध दिया गया है । तिस कारण जीवके एक अनेक आत्मकपना