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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
६५.३
स्थितिरित्यादिसूत्रेण योक्ता भवनवासिनां । विशेषेण स्थितिर्या च तदनंतरकीर्तिता ॥१॥ . सूत्रैश्चतुर्भिरभ्यासाद्यथागममशेषतः।
परावैमानिकानां च सोत्तरत्रावरोक्तितः॥२॥
“ स्थितिरसुरनाग " इत्यादि सूत्र करके उमास्वामी महाराजने भवनवासी वेवोंकी : विशेष रूपसे जो स्थिति कह दी है और उसके अव्यवहित पश्चात् आगमपरिपाटीका अतिक्रम नहीं कर स्वकीय धारणानुरूप अभ्याससे इन चार सूत्रोंकरके जो सम्पूर्ण वैमानिक देवोंकी स्थितिका कीर्तन किया है, वह स्थिति उत्कृष्ट--समझ लेनी चाहिये। क्योंकि उत्तरवर्ती पिछले ग्रन्थमें भवनवासी या वैमानिक देवोंकी जघन्यस्थितिका निरूपण किया जानेवाला है। भावार्थ-आयुष्यका निरूपण करते हुए सूत्रकारने इन पांच सूत्रोंमें परा या जघन्या कोई शब्द नही डाला है। ऐसी दशामें उक्त स्थिति उत्कृष्ट समझी जाय ? या जघन्य ? इसका कोई निर्णायक नहीं है। विना स्वामीके मालको जिसके हाथ पडे वही हडप ले जाता है । इस विषयका" निर्णय ग्रंथकार यों कर देते हैं। जब कि जघन्यस्थितिका वर्णन भविष्यमें किया जायगा तो अर्थापत्त्या सिद्ध है कि यह देवोंकी उत्कृष्ट स्थिति है । पुण्य अनुपार प्राप्त हुए हृदयसे काम लेना चाहिये । हृदयके सहकारी हो रहे मस्तिष्कके अवयव नला फिर किस रोगको औषधि है ?
___ अवरायाः स्थितेरुत्तरत्र वपनादिह भवनवासिनामेकेन सूत्रेण वैमानिकानां च चतुभिः सूत्रविशेषेण या स्थितिः प्रोक्ता सा परोत्कृष्टेति गम्यते ।
___ जघन्य स्थितिका उत्तरवर्ती ग्रंथमें जब निरूपण किया जायगा, इससे सिद्ध है कि यहां एक सूत्र करके भवनवासियोंको और चार सूत्रों करके वैमानिक देवोंको जो विशेष करके स्थिति ठीक कही गयी है, वह परा यानी उत्कृष्टा समझनी चाहिये। यह अनुमानसे जान लिया जाता है।
का पुनरवरेत्याह।
फिर जघन्य स्थिति क्या है ? इस प्रकार विनीत शिष्योंको जिज्ञासा होने पर सूत्रकार अग्रिम सूत्रको विशदरीत्या कहते हैं।
अपरा पल्योपममधिकम् ॥३३॥ देवोंको जघन्य स्थिति तो कुछ अधिक एक पल्योपम है । यह जघन्य स्थिति सौधर्म ऐशान स्वर्गवासी देवोंकी समझो जाती है।
परिशेषात्सौधर्मशानयोर्देवानामवरा स्थितिरिय विज्ञायते, ततोन्येषामुप्तरत्र जघन्यस्थितेवक्ष्यमाणत्यात् ।