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________________ तत्त्वाथचिन्तामणिः ६५१ amannmenmonionemama - उक्त स्थितियोंको घातायुष्क सम्यग्दृष्टियोंकी अपेक्षा आधा सागर अधिक समझना | आनत, प्राणत स्वर्गोमें तेरह अधिक सात सागर यानी वीस सागरोपम काल उत्कृष्ट स्थिति है । तथा आरण और अच्युत स्वर्ग में पन्द्रह करके अधिक सागर अर्थात्-बावीस सागरकी स्थिति है। तु शब्दका प्रयोजन सहस्रारतक ही अधिक शब्द की अनुवृत्ति करना है। सप्तेत्यनुवर्तते, तेन सानत्कुमारमाहेंद्रयोरुपरि द्वयोः कल्पयोः सप्तसागरोपमाणि त्रिमिरधिकानि इति दश साधिकानि स्थितिः, तयोरुपरि द्वयोः कल्पयोः सप्त सप्ताधिकानीति चतुर्दशाधिकानीति, तयोरुपरि द्वयोः सप्तनवमिरधिकानीति षोडशाधिकानि, तयोरुपरि द्वयोः सप्तकादशभिरधिकान त्यष्टदशाधिकानि. तयोरुपरि दयोरानतप्राणतयोः सप्त त्रयोदशभिरधिकानीति विंशतिरेव, तयोरुपरि द्वयोरारणाच्युतयोः सप्तवदशभिरधिकानीति द्वाविंशतिरेव । तु शब्दस्य विशेषणार्थत्वात् । आसहस्रारादधिकारात् परत्राधिकानीत्यभिसंबंधाभावः । पूर्व सूत्रसे सप्त इस शब्दकी अनुवृत्ति कर ली जाती है। तिस कारणसे यह अर्थ हो जाता है। सानत्कुमार, माहेंद्र, स्वर्गोंके ऊपर दो कल्मोंमें तीनसे अधिक सात सागर स्थिति है। इस कारण उत्कृष्ट स्थिति कुछ अधिक दस सागर की है। उन दो ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर स्वर्गाके ऊपर दो कल्पोंमे सात अधिक सात सागर इस प्रकार साधिक चौदह सागर इतनी उत्कृष्ट स्थिति है । उन सातव कापिाठोंके ऊपर वर्त्त रहे दो शुक्र महाशक्र स्वर्गों में नौसे अधिक सात सागर यों कुछ अधिक सोलह सागरोपम उत्कृष्ट स्थिति है। उन शुक्र महाशुक्रोंके ऊपर ठहर रहे शतार सहस्रार, स्वर्गोमें ग्यारहसे अधिक हो रहे सात सागर यों आधा सागर अधिक अठारह सागरकी उत्कृष्ट स्थिति है। पुनः उन शतार सहस्रार दो स्वर्गों के आधा राज ऊपर बर्त रहे दो आनत, प्राणत स्वर्गोंमें तेरहसे अधिक हो रहे सात सागरयों केवल वीस ही सागरकी उत्कृष्ट आयु है । उन आनत प्राणतोंके आधा राजू ऊपर वर्त रहे दो आरण, अच्युत, स्वर्गों में देवोंका आयुष्य पन्द्रह करके अधिक सात सागर इस प्रकार शुद्ध बाईस ही सागर उत्कृष्ट आयुष्य हैं । सूत्र में पडे हुए तु शब्दका अर्थ कुछ विशेषण लगाकर विशेषता कर देना है । अतः सहस्रारपर्यंत अधिक शब्द का अधिकार होनेसे परली ओर आनत आदिमें बीस, बाईस, इन दो स्थलोंपर सागरके साथ अधिकानि शब्द के सम्बन्ध करनेका अभाव हो जाता है । बात यह है कि घातायुष्क सम्यग्दृष्टि की आयु यदि साडे सात सागर होगयी है तो वह सानत्कुमार माहेंद्र स्वर्गोमें उपजेगा। हां, अन्य साडेसात सागर आयुबाला जीव ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, स्वर्गों में जायगा। इसी प्रकार जिस घातायुष्क सम्यग्दृष्टि मनुष्य के साडे अठारह सागर स्थितिवाली देवायुष्यका सद्भाव हैं, वह शतार, सहस्रार स्वर्गोमे जन्मेगा और शेष साडे अठारह सागर देवायुष्यवाला जीव आनत प्राणत स्वर्गोमें जायगा। यहांसे छह राज ऊपरतक निवस रहे उन आरण. अच्यत. स्वों के ऊपर अहमिन्द्रवैमानिक देवोंकी स्थिति कितनी है ? इसकी प्रतिपत्ति करानेके लिए उमास्वामी महाराज अग्रिम सूत्रको कहते हैं।
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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