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________________ सलापमित्तामणिः और अछाले दुये छल जैसे अव्यवस्थित यहां वहां टेडे मेढे स्थानोंपर गिर जाते हैं, उसी प्रकार बोल्यों के बीचमें अस्तव्यस्त फैल रहे विमान पुष्पप्रकीर्णक हैं । ये तीनों प्रकारके विमान अनादि कासे अनन्तकालतक उसी स्थानपर जमे हुये हैं । उडाके विमानों के समान यहाँ वहां नहीं उडते फिरते हैं । भले ही कृत्रिम छोटे छोटे विमानोंमें बैठकर देव यहाँ वहाँ, नंदीश्वर द्वीप, समुद्र, पर्वत, आदिमें भ्रमण करें, भूमियोंमें प्रतिष्ठित नहीं होनेसे इन अकृत्रिम विमानोंको भवन, आवास या नगर नहीं कहा जासकता है। कुछ विमान तो जलके ऊपर या भापके ऊपर प्रतिष्ठित हैं और कतिपय विमान वायुपर प्रतिष्ठित हैं। किन्तु शेष बहुभाग विमान आकाशमें ही विना सहारेके अवलम्बित होरहे है । पराश्रयकी अपेक्षा स्वाश्रयपक्ष ही अन्तमें निश्चयसे आदरणीय है । अब श्री उमास्वामी महाराज उन वैमानिक देवोंके मूल दो भेदोंका निरूपण करनेके लिये अग्रिम सूत्रको कहते हैं । कल्पोपपन्नाः कल्पातीताश्च ॥१७॥ कल्पोंमें उपपाद जन्म द्वारा उत्पन्न हुये देव और कल्पोंका अतिक्रमण कर ऊपर उपज रहे देव यो कल्पोपपन्न और कल्पातीत ये दो वैमानिक देवोंके भेद हैं। सौधर्मादयोऽच्युतांताः कल्पोपपन्ना इंद्रादिदशतयकल्पनासद्भावात् कल्पोपपद्मनामकर्मोदयवशवर्तित्वाच्च न भवनवास्यादयस्तेषां तदभावात् । नवौवेयका नवानुदिशाः पंचानुत्तराश्च कल्पातीताः कल्पातीतनामकर्मोदये सति कल्पातीतत्वात् तेषामिंद्रादिदशतयकल्पनाविरहात् सर्वेपामहमिंद्रत्वात् । ___प्रथमस्वर्गवासी सौधर्मको आदि लेकर सोलहवें अयुत स्वर्गपर्यन्त ठहरनेवाले देव कल्पोपपन्न है। क्योंकि उनमें इन्द्र, सामानिक, आदि दश अवयववाली कल्पनाका सद्भाव हो रहा है । दूसरी बात यह है कि गतिनामकर्मके व्याप्य तद्याप्य हो रहे कल्पोपपन्न संज्ञक नामकर्मक उदयकी अधीनतामें वर्तना होनेके कारण सोलह स्वर्गके देव कल्पोपपन्न हैं । हां, भवनवासी आदिक तीन निकायोंके देव तो कल्पोपपन्न नहीं हैं। क्योंकि उनके भले ही इन्द्र, सामानिक, आदि दश या आठ विकल्प पाये जाते हैं । फिर भी उस कल्पोपपनसंज्ञक नामकर्मके उदयका अभाव है। कल्पोपपन्नत्वकी सिद्धि करनेके लिये इन्द्र आदि दश प्रकारकी कल्पनाका सद्भाव होते हुये कल्पोपपन्न संज्ञक नामकर्मके उदयकी यशवर्तिता इतना लम्बा ज्ञापकहेतु या कारक हेतु उपयोगी है । अर्थात्-कौके उदयके पराधीन बने रहना इसलिये कहा गया है कि ध्रुव उदयवाले गतिकर्मका कभी कभी द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावके महीं मिलनेपर रसोदय नहीं हो पाता है। देवपर्यायमें अपनी स्थितिके परिपूर्ण हो जानेपर उदय प्राप्त हो गई मनुष्यगति विना फल दिये ही खिर जाती है । इसी प्रकार कदाचित देवगति कर्मकी मनुष्य अवस्थामें स्थिति पूरी हो जानेपर फल दिये विना ही कोरा प्रदेश उदय हो
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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