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________________ तत्वावलोकवार्तिक परिमाणको धारता है। दक्षिणायनमें तुलाराशिके प्रवेश अवसरपर और उत्तरायणमें मेषराशिके प्रवेशके दिनका विषय होनेपर सूर्य मेरुको पैंतालीस हजार योजन और पिचत्तर योजन तथा योजनके इकसठ भागोंमेंसे चौबीस भागों करके दूर अप्राप्त होकर चमक रहा है। अर्थात्-जम्बूद्वीपकी वेदीके ऊपर जम्बूद्वीपका सूर्य घूमता रहता है । उत्तरायणका प्रकरण मिलनेपर वेदीके एकसौ अस्सी योजन भीतरतक घुसकर प्रकाशता है और दक्षिणायनके दिनोंका विषय मिलनेपर वेदीसे तीनसौ तीस और अडतालीस बटे इकसठि योजनतक बाहर लवण समुद्रमें जाकर प्रकाशता है । चार क्षेत्र पांचसौ दशको आधा कर यानी एक ओरके दोसौ पचपनमेंस द्वीपके चार क्षेत्र एकसौ अस्सीको घटा कर पिचत्तर योजन वेदीसे बाहर हटकर बीचली गली आती है । दश हजार योजन चौडे सुमेरु पर्वतके आधे पांच हजारको अर्ध जम्बूद्वीप पचास हजार से घटा देनेपर वेदीसे मेरुका व्यवधान पैंतालीस हजार समझा जाता है। चूंकि बीचकी गली वेदीसे पिचत्तर योजन वाहर हटकर पडी है । अतः मध्यम गलीसे मेरुका अन्तर पैंतालीस हजार पिचत्तर योजन ४५०७५ है। " इदि जोयण एगारह भागो जदि वादे यहा यदि वा " इस नियम अनुसार आठसौ योजन ऊंचे सूर्यके समतलपर सुदर्शन बहत्तर और आठ बटे ग्यारह योजन घट गया है । एक ओरकी घटाईके लिये आधा करनेपर छत्तीस और बढ जाते हैं। अतः मध्यम गलीसे मेरुका अन्तर पैंतालीस हजार एकसौ ग्यारह योजन हो जाता है । किन्तु यहां मेरकी ग्यारहमें भाग घटाईके अनुसार छत्तीस और चार बटे ग्यारह योजनोंकी विवक्षा नहीं की गयी है। मध्यम वीथीतकका व्यास एक लाख एकसौ पचास १००१५० योजन है । " विक्खंभवग्गदहगुण करणी वट्टस्स परिरयो होदि " इस नियमके अनुसार इसका वर्ग दस अरब तीन करोड बाईस हजार पांचसौ होता है, इसको दस गुना करनेपर एक खरब तीस करोड दो लाख पच्चीस हजार १००३००२२५००० होता है। इसका वर्गमूल निकालनेसे तीन लाख सोलह हजार सातसौ दो कुछ अधिक योजन मध्यम वीथीकी परिधि ( घेरा ) बन जाती है। चार क्षेत्र पांचसौ दसके माधे दो सौ पचपनमेंसे एकसौ अस्सी योजन भीतरला भाग घटा देनेपर वेदीसे पिचत्तर योजन लवण समुद्रमें घुसकर मध्यम गली मिलती है। भीतरले एकसौ अस्सीमें पिचत्तर जोड देनेसे या बाहरले तीनसौ तीसमेंसे पिचहत्तर घटा देनेपर मध्यम मार्ग दो सौ पचपन योजन आ जाता है । जो कि चार क्षेत्र पांचसौ दसका आधा है । छह छह महीनेके उत्तरायण, दक्षिणायन गमनके ठीक विचले एक एक दिनके लिये दिन और रात समान हो जाते हैं । " छम्मासद्धगयाणं जोइसयाणं समाणदिणरत्ती, तं इसुर्व" ( त्रिलोकसार ) इसको विषुमान् या विषुव कहते हैं । विषुमान् दिनमें पांच हजार दोसौ अठहत्तर और एक योजनके साठ भागोमेसे वाईस भागसे अधिक परिमाणयाला स्थान एक मुहुर्स यानी दो घडी अथवा अडतालीस मिनटमें हो रही सूर्यकी गतिका क्षेत्र बन जाता है। अर्थात्-ताई द्वीपके सभी सूर्य साठ मुहूर्तमें अपनी योग्य परिधीको घूमकर पूरा कर लेते हैं । जब कि जम्बूद्वीपका सूर्य मध्यम बीपीपर भ्रमण कर रहा साठ मार्तमें तीन सास, सोलह हजार सात सौ दो योजन माछ
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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