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तत्वार्थचिन्तामणिः
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प्रत्ययवाले पदका लिंग भी प्रकृतिके अनुसार होना चाहिये । जैसे सिंह एव सिंहकः, मृत् एव मृत्तिका, कर्मैव कार्मणं, यहां प्रकृति के लिंग अनुसार ही स्वार्थिक प्रत्ययान्त पदोंका भी लिंग वही है । उसी प्रकार ज्योतिष् शङ्ख नपुंसकलिंग है । स्वार्थमें क प्रत्यय करनेपर भी ज्योतिष्क शद्ब नपुंसकलिंग ही बना रहेगा, किन्तु यहां ज्योतिष्काः ऐसा पुल्लिंग शद्वस्वरूप सुना जा रहा है। सो क्यों ? इसके उत्तरमें आचार्य कहते हैं कि तिस प्रकार लिंगका अतिक्रमण करते हुये भी शद्वव्यवहार हो रहा देखा जाता है | स्वार्थ प्रत्ययवाले पदका कहीं कहीं प्रकृति के लिंगसे अतिक्रमण हो जाना कहा गया है । अतः ज्योतिष्क शद्वमें भी ज्योतिष् प्रकृतिके लिंग नपुंसकका उल्लंघन होकर पुल्लिंग देव या निकाय शतकी विशेषणताको धार रहा ज्योतिष्कराद्व पुल्लिंग हो गया है। जिस प्रकार कि " कुटी
डाभ्यो रः इस सूत्र करके कुटीर शमीर आदि शब्द बना लिये जाते हैं । ह्रस्वा कुटी कुटीरः,
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ह्रस्वा शमी शमीर:, छोटी कुटिया ( झोंपडी ) कुटीर है। छोटी शीशों का
पेड शमीर है । यहां
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स्त्रीलिंग कुटी और शमी शद्धसे स्वार्थमें र प्रत्यय कर पुल्लिंग कुटीर, शमीर, कुटी या शमीका ह्रस्वपना उसका निजशरीर ही है । अवयवोंका छोटापन होते हुये भी स्वार्थको ही कह रहा है
शब्द बना लिये गये हैं। अतः ह्रस्व अर्थको कह रहा र प्रत्यय
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किसी पुरुषके एक अंगुली कमती होय या बढती होय, एतावता वह विशिष्ट मंत्रसम्बन्धी विधियों में भले ही उपयोगी नहीं समझा जाय, किन्तु उपांगहीन या उपांगअधिक पुरुषका निज डील कोई विभिन्न नहीं हो जाता है । इसी प्रकार कृत एव कृतकः तालु एव तालुकः यहां शुद्ध प्रकृतिका जो अर्थ है, वही स्वार्थिक प्रत्ययान्त पदका । न्यून, अधिक, नहीं है । किन्तु हस्वा कुटी कुटीरः, प्रशस्ता मृत् मृत्स्ना कुत्सितोऽखः अश्वकः, लघुतमो लघिष्ठः, अंगुलीव आंगुलिकः, यहां अवयवों के न्यून, अधिक, प्रकृष्ट, निकृष्ट या सादृश्य होते हुये भी स्वार्थिकपनेका कोई विरोध नहीं है । अतः कुटीर या देव एव देवता, ओषधि - रेव औषधम् शर्करैव शार्करम्, यहां भी कारणवश हो रही लिंग की अतिवृत्ति के समान ज्योतिष्क
लिंगका परिवर्तन हो जाता है । यों शद्वशास्त्र के साथ अर्थशास्त्रका सम्बन्ध समझते हुये न्याय प्राप्त अर्थका ग्रहण कर लिया करो ।
सूर्याचन्द्रमसा इत्यत्रानङ् देवताद्वंद्ववृत्तेः । ग्रहनक्षत्रप्रकीर्णकतारका इत्यत्र नानङ् । पुनर्द्वन्द्रग्रहणात्तस्येष्टविषये व्यवस्थानादसुरादिवत् किंनरादिवच्च ।
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आनड् हो जाता है । देवता बन गये प्रहनक्षत्रप्रकीर्णक
सूर्यश्च चन्द्रमाश्च इति सूर्याचन्द्रमसौ इस प्रकार द्वन्द्व होनेपर यहां देवता वाचक शब्दोंकी द्वन्द्वसमास नामक वृत्ति हो जानेसे " देवता द्वन्द्वे " इस सूत्र करके होनेपर भी ग्रहाश्व, नक्षत्राणि च, प्रकीर्णकतार काश्च, यो द्वन्द्व करनेपर तारकाः यहां आनङ् प्रत्यय नहीं हो पाता है । क्योंकि “ आनड् द्वन्द्वे अनुवृत्ति हो सकती थी । किन्तु व्याकरण सूत्रकारने " देवता द्वन्द्वे या है । वह द्वन्द्व पद व्यर्थ होकर ज्ञापन करता है कि अभीष्ट विषयोंमें यह व्यवस्था है, जैसे कि
इस सूत्र द्वन्द्व इस शब्दकी
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इस सूत्रमें पुनः द्वन्द्वग्रहण
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