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तत्वार्यश्लोकवार्तिके
दिये । अनेक दोषोंका निराकरण करना वैशेषिकोंकी शक्ति का कार्य नहीं रहा । इसके आगे वैशेषिकों के करणत्व आदि अन्य हेतुओंकी भी आचार्य महाराजने निःसारता दिखायी है। यहां नैयायिकोंने चिड कर जो कुचोद्य उठाये हैं उनको अपने ग्रन्थमें पूर्णरत्या अनुवाद कर पश्चात् उन कुचोद्योंका निराकरण कर दिया है । जगत्में अनेक प्रकारके कार्य हो रहे हैं। सबका प्रयोक्ता कोई प्रधान व्यक्ति होवे ही, ऐसा कोई नियम नहीं है। एकके ऊपर एक, पुनः उसके भी अन्य अधिकारियोंकी कल्पना करते हुये अनवस्था दोष वैशेषिकोंके यहां दुर्निवार बता दिया है । ईश्वरके अनादिकालीन शुद्धि नहीं सम्भवती है । दृष्ट, इष्ट, प्रमाणोंसे विरुद्ध कथन करनेवाले ईश्वरको सर्वज्ञ कहना भी उपहासास्पद है। वैशेषिकोंके सभी अनुमानोंको आचार्य महाराजने दूषित कर दिया है । वैशेषिकोंका आगम माना गया वेद, प्रमाणभूत नहीं है । हां, समीचीन अनुमानोंसे जिनोक्त आगमसे लोक अकृत्रिम सिद्ध हो जाता हैं । लोकः ( पक्ष ) बुद्धिमता नैव कृतः ( साध्य ) दृष्ट, कृत्रिम, कटादिविलक्षणतया ईक्षण होनेसे ( हेतु ) समुद्र या खानमें उपजे हुये माणि, मोती, आदिके समान ( अन्वयदृष्टान्त ) इस अनुमानके प्रत्येक अवयवको आचार्योंने बडी पुष्टयुक्तियोंसे सिद्ध कर दिया है । व्यर्थमें उठा दिये गये विरुद्ध आदि हेत्वाभासोंका अचूक विध्वंसन कर दिया है। अन्य भी कितने ही मध्य, मध्यमें सविनोद स्वपक्षमण्डन और परपक्षखण्डन करनेमें युक्तियां दी गयीं हैं, जो कि श्लोकवार्तिक ग्रन्थका प्रविष्ट होकर परिशीलन करनेवालोंके हृदयंगत होकर संतोषाधायक हैं । अनादि कालसे अनन्त कालतक इस जगत्की व्यवस्था जड या चेतन कारणोंके अथवा अनन्त परिणमनोंके अधनि होकर प्रवर्त रही है । एक धर्म द्रव्य, एक अधर्म द्रव्य, एक आकाश द्रव्य, असंख्य कालद्रव्य, अक्षय अनन्तानन्त जीवद्रव्य और इनसे अनन्तानन्त गुणे अक्षय अनन्त. पुद्गलद्रव्य ये सम्पूर्ण द्रव्य सार्वदिक्, नित्य हैं । इनकी स्वाभाविक और जीव पुद्गलों की वैभाविक भी पर्यायें न जाने किन किन कारणोंसे हो रही उत्पाद, व्यय, धौव्य, स्वरूप व्यवस्थित हैं । अतः छह प्रकारके द्रव्योंका पिण्ड यह लोक अनादिनिधन चला आ रहा, अकृत्रिम, है । किसी एक प्रेरक बुद्धिमान् करके बनाया गया नहीं है । अनेक लौकिक छोटी छोटी युक्तियों द्वारा ही जब कर्तृवादका जीर्ण वस्त्रके समान खण्डन हो जाता है । पुनः निर्दोष अनुमान और त्रिलोक त्रिकाल अबाधित आगमसे तो विद्वानोंके हृदयमें लोकके अकृत्रिमपनका चमत्कारभाव स्थायी हो जाता है । जगत्की विशिष्ट परिणतियोंका अध्ययन करनेवाले सहृदय सज्जन विद्वानों करके इस लोकका पूर्ण स्वरूप समझ लेना चाहिये । श्री उमास्वामी महाराजने तीसरे अध्यायमें जीवोंके अधिष्ठान विशेष अधोलोक और मध्यलोकका बडी गम्भीरतासे सूत्रों द्वारा निरूपण कर दिया है । प्रमाण और नय नामके अव्यर्थ उपाय तत्वोंसे लोककी अन्य रचनाओंका भी परिज्ञान कर लिया जाता है । इस अकृत्रिम लोककी रचना इतनी अद्भुत है कि लाखों, करोडों, ग्रन्थों करके भी भरपूर नहीं कही जा सकती है । फिर भी जीवतत्त्वका सांगोपांग परिच्छेद करनेके लिये अथवा धर्मध्यानको भावनेके उपयोगी मध्यलोककी विशेषस्थलीय रचनाओंको