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तत्त्वार्यश्लोकवार्तिके
तथैव बुद्धया विहितं विश्वकर्मकृतं महत् । ततो विबुधशार्दूलास्तं रथं समकल्पयन् । विष्णु सोमं हुताशञ्च तस्येषु समकल्पयन् । शृङ्मग्निर्बभूवास्य भल्लः सोमो विशाम्पते । अतिष्ठत् स्थाणुभूतः स सहस्रं परिवत्सरान् । यदा त्रीणि समेतानि अन्तरीक्षे पुराणि च । त्रिपर्वणा त्रिशल्येन तदा तानि बिभेद सः । पुराणि न च तं शेकुर्दानवाः प्रतिवीक्षितुम् । शरं कालाग्निसंयुक्तं विष्णुसोमसमायुतम् । पुराणि दग्धवन्तं तं देवा याताः प्रवीक्षितुम् " " तान् सोऽसुरगणान् दग्ध्वा प्राक्षिपत् पश्चिमाणर्वे । एवन्तु त्रिपुरं दग्धं दानवाश्चाप्यशेषतः। महेश्वरेण क्रुद्धेन त्रैलोक्यस्य हितैषिणा " तथा व्यासकृत वैष्णव सम्प्रदायवाले हरिवंश पुराणके एकसौ पैंतालीसवें अध्यायमें अन्धक असुरकी उत्पत्ति यों लिखी है कि दिति कहती भयी " हतपुत्रास्मि भगवन् देवैधर्मभृताम्वर । अवध्यं पुत्रमिच्छामि देवैरमितविक्रमम् । इसके उत्तरमें कश्यप उवाच । अवध्यस्ते सुतो देवि दाक्षायणि भवेदिति । देवानां संशयो नात्र कश्चित् कमललोचने । देवदेवमृते रुद्रं तस्य न प्रभवाम्यहम् । आत्मा ततस्ते पुत्रेण रक्षितन्यो हि सर्वथा । अन्वालभत तां देवीं कश्यपः सत्यवागथ । अङ्गुल्योदरदेशे तु सा पुत्रं सुषुवे ततः ॥ यह अन्धक असुर अविचारक पाप पंकमें फसे हुये अन्धे मदान्ध पुरुषोंके समान स्वच्छन्द भ्रमण करता हुआ देव या मनुष्योंको अनेक कष्ट देता भया । पश्चात् महेशसे उसको मारनेके लिये दुःखित जनोंने प्रार्थना की । हरिवंश पुराण एक सौ छियालीसमें अध्यायमें लिखा है कि " मुमोच भगवाञ्छे प्रदीप्ताग्निसमप्रभम् । ततः पश्चात् हरोत्सृष्टमन्धकोरसि दुर्द्धरम् । भस्मसाच्चाकरोद्रौद्रमन्धकं साधुकण्टकमिति " इसी प्रकार गजासुर कामदेव आदिके विनाश किये जानेकी रोचक कथायें पुराणोंमें लिखी हैं । विष्णु करके प्रल्हादकी रक्षाके लिये हिरण्यकशिपुका वध अच्छे ढंगसे लिखा गया है। इसी प्रकार कंस, मुर आदिका नाश करना भी बडी श्रद्धाबुद्धिसे उपदिष्ट किया गया है। सच पूछो तो यह स्पष्ट रूपसे संकल्पी हिंसा है । एक छोटी श्रेणीका जैन गृहस्थ भी जिस संकल्पी हिंसा को नहीं कर सकता है । परमात्मा या परमात्माके आंशिक गुणोंको धारनेवाला देव या पुरुष तो कथमपि ऐसी हिंसाको नहीं करना चाहेगा । सज्जन पुरुषोंके प्रभावशाली उपदेशों द्वारा ही क्रूर पुरुष शान्त हो जाते हैं । अस्तु कुछ भी हो वैशेषिक या नैयायिक दार्शनिकोंने उक्त पौराणिक कथाओंपर अखण्ड विश्वास नहीं रक्खा है । ये ईश्वरको अदेह स्वीकार करते हैं । हां, ईश्वर द्वारा विशिष्ट शक्तियोंको प्राप्त कर कोई कोई जीवात्मायें जगत्में बडे बडे चमत्कारक कार्योको कर पाडती हैं ऐसा वैशेषिक मान लेते हैं । जैन सिद्धान्त अनुसार देव या राक्षसोंकी आयुका मध्यमें ही छिन हो जाना नहीं माना गया है हां, तीर्थकर, चक्रवर्ती, नारायण, प्रतिनारायण आदि पुण्यशाली पुरुषोंके या विद्याओंको साधनेवाले पुरुषोंके अधीन अनेक देवता हो जाते हैं । अनेक देवों के ऊपर कई पुण्यात्मा पुरुषोंका प्रभाव स्थापित हो सकता है। जैन पुराणोंमें भी महादेव, रामचन्द्र, कृष्ण, पाण्डव, आदिके चरित्रोंका वर्णन हैं। रुद्रोंकी उत्पत्ति तो चारित्रसे भ्रष्ट हो चुके मुनि और आर्यिकाके सम्बन्ध द्वारा हुई मानी गयी है। इस कल्पकालकी अव