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________________ तत्वार्थश्लोकवार्तिके ८८ "" अनुमानके पक्षमें नहीं धरा गया है । अथवा दैशिक परत्व, अपरत्व, " इदमतः 'यह इससे पूर्व है, अमुक यहांसे उत्तर में हैं इत्यादि लिंगकरके अनुमानसे जानी गयी नित्य दिशा द्रव्यका भी पक्षमें नहीं ग्रहण किया गया है । तथा " युगपज्ज्ञानानुत्पत्तिर्मनसो लिंगं " चक्षु आदि कारणोंकरके होनेपर भी युगपत् कई ज्ञानों की उत्पत्ति नहीं होने के करके अनुमान किया गया नित्य हो रहा मन भी धर्मी नहीं किया गया है। मन अनन्ते हैं । घट, पट, बिन्दु, हिम, ज्वाला, अंगार, श्वास, व्यजनवात, आदिक कार्य द्रव्योंकरके अनुमान प्रमाण द्वारा जान लिये गये पृथिवीपरमाणु, जलीय परमाणु, तैजसपरमाणुयें, ये नित्य हो रहीं पृथिवी आदि चार जातिकी परमाणुयें भी धर्मी नहीं की गयी हैं । क्योंकि उन नित्य परमाणुओंको कर्तृजन्यपनके विवादमें ग्रसितपना नहीं है । नित्य पदार्थों को कोई भी पण्डित ईश्वरकृत नहीं मानता है तिस ही कारणसे यानी विवादापन्न नहीं होनेसे 'यह गौ, यह गौ यह भी वैसी ही गौ, इस प्रकारके अनुवृत्ति ज्ञानोंकर के अनुमान प्रमाण द्वारा जानने योग्य चौथा गोल द्रव्यत्व आदि सामान्य (जाति) पदार्थ भी हमने पक्षकोटि में नहीं रखा है। तथा इन तन्तुओंमें पट है, इस घट रूप है इस प्रकार सप्तम्यन्त और प्रथमान्त पदोंका समभिव्याहार होनेपर " इह इदं इस प्रतीतिके द्वारा अनुमान करने योग्य समवाय पदार्थ भी धर्मी नहीं बनाया है जो कि " एक एव समवायस्तत्त्वंभावेन, अयुतसिद्धानामाचार्याधारभूतानामिहेदं प्रत्ययहेतुः सम्बन्धः समवायः, नित्यसम्बन्धः समवायः इस ढंग से समवाय नित्य माना गया है तथा " अन्त्यो नित्यद्रव्यवृत्तिर्विशेषः परिकीर्तितः” अन्तमें होनेवाले और नित्यद्रव्योंमें वर्त रहे तथा अत्यन्त व्यावृत्तिबुद्धि के कारण ऐसे विशेष पदार्थ तो नित्य हैं उनको हम ईश्वरजन्य थोडा ही मानते हैं । अर्थात् —घटका व्यावर्तक कपाल, कपालका व्यावर्तक उसके अवयव कपालिकायें, यों दूर चलकर पंचाणुक, पुनः इसका व्यावर्तक चतुरणुक और चतुरणुकका भेदकारक त्र्यणुक एवं त्र्यणुकका व्यावर्तन करनेवाला द्यणुक है । द्व्यणुकोंकी व्यावृत्ति परमाणुओंसे हो जाती है । किन्तु अनन्तानन्त परमाणुओंकी परस्परमें विशेषताओं को करनेवाला एक एक परमाणु के साथ एक एक विशेष पदार्थ लगा दिया गया है । जो कि विशेष पदार्थ स्वतः व्यावृत्त है स्वपरप्रकाशक दीपकके समान स्वपरव्यावर्तक उसको अन्य विशेषों की अपेक्षा नहीं है । इस कारण विशेषको सबके अन्तमें ठहरा कर अन्त्य माना है वे अनन्तानन्त विशेष पदार्थ तो चतुर्विध अनन्त परमाणुओं और आकाश, काल, दिक्, आत्मा, मन इन नित्य द्रव्योंमें वर्तते हैं । परस्परमें या अन्य पदार्थोंसे हो रही अत्यन्त व्यावृत्ति बुद्धि के हेतुमें विशेष पदार्थ हैं । नित्य पदार्थ हो रहे इन विशेषोंको पक्षमें नहीं किया गया है । "" गया 1 ४५० तथा गुणोऽप्यशाश्वत एव रूपादिर्घम न पुनः शाश्वतो ऽन्त्यविशेषैकार्थसमवेतः । परिमाणैकत्वैकपृथक्त्वगुरुत्वस्नेहसलिलादिपरमाणुरूपरसस्पर्शादिलक्षणो नापि द्रवत्वममूर्तद्रव्यसंयोगो वा तदाधारेतरेतराभावो वा तस्यानुत्पत्तिरूपस्याविवादाध्यासितत्वात् ।
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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