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________________ तत्वार्थचिन्तामणिः हजारों हेतुओंसे भी अग्निका अनुष्णपना या शब्दका कूटस्थ नित्यपना कथमपि नहीं साधा जा सकता है । अथवा पहिलेसे बाधित हेत्वाभास के उठा देनेपर पुनः अन्य हेतुओं करके भी वादीका पक्ष रक्षित नहीं किया जा सकेगा । बलवती बाधा के उपस्थित कर देने पर सम्पूर्ण हेतुओंकी शक्तियां मर जाती हैं । इस कारण कर्त्तावादियों के पक्ष में वह बाधा उठा देनी चाहिये उस बाधाको उपस्थित करनेकी उपेक्षा ( लापरवाही) करनेमें कोई प्रयोजन नहीं है । पाप या कृष्ण सर्पको अविलम्ब पृथक् कर दिया जाय यही सबका इष्ट प्रयोजन होना चाहिये उनको रखनेमें कोई प्रयोजन नहीं सकता है 1 प्रत्युत महती हानि होनेका खटका है । यों यहांतक कोई दूसरे विद्वान् अच्छा बखान कर रहे है । श्री विद्यानन्द आचार्यने बडी विद्वत्ता के साथ कर्तृवादका निराकरण किया है जैसे गुरुजी महाराज अपने अनेक शिष्योंकी परीक्षा लेते हुये भिन्न भिन्न वचनभंगियों द्वारा एक ही प्रमेयकी न्यारी न्यारी व्याख्या करा कर प्रसन्न होते हैं ग्रन्थकार भी जिनमार्गभक्त अनेक विद्वानों द्वारा कर्तृवादके निराकरणके पाठकी प्रक्रियाको मानो सुन रहे हैं । केचित् और अपरे विद्वानोंके पश्चात् अन्य विद्वान् तो यहां यों कह रहे हैं किसर्वथा यदि कार्यत्वं हेतुः स्याद्वादिनां तथा । न सिद्धो द्रव्यरूपेण सर्वस्याकार्यतास्थितेः ॥ ५२ ॥ कथंचित्तु विरुद्धः स्याद्वीमद्धेतु जगत्स्वयं । कथंचित्साधयन्निष्टविपरीतं विशेषतः ॥ ५३ ॥ 33 वे वैशेषिकोंने जो यह अनुमान कहा था । कि " द्वीपक्षियकुरादिकं कर्तृजन्यं कार्यत्वाद् घटवत् इस अनुमानमें कहे गये कार्यत्व हेतुका अर्थ यदि सभी प्रकास कार्यपना है तब तो स्याद्वादियों के यहां द्वीप, पृथिवी, आदिमें तिस प्रकार सर्वथा कार्यपना हेतु सिद्ध नहीं है क्योंकि द्रव्यस्वरूप करके सम्पूर्ण पदार्थों को कार्यरहितपना व्यवस्थित हो रहा है घट, पट आदिक भी द्रव्यार्थिक नय करके कार्य नहीं हैं । अर्थात् — जिन अनादि अनन्त द्रव्यों के पर्याय घट, पट, आदि हैं द्रव्य कार्य नहीं होकर नित्य हैं । अतः पक्षमें नहीं ठहरनेसे कार्यत्व हेतु असिद्ध हेत्वाभास हुआ। हां, इस असिद्ध दोष के निवारणार्थ सर्वथा पक्षको छोडते हुये तुम वैशेषिक यदि कथंचित् कार्यपनको हेतु मानोगे तब तो तुम्हारा हेतु विरुद्ध हेत्वाभास होजायगा क्योंकि तुम जगत्का बुद्धिमान हेतु करके सर्वथा उपजना साध रहे हो यानी जगतू सर्वथा ईश्वर नामक कारणको कार्यता है किन्तु कथंचित् कार्यत्व हेतु तो विशेष रूप करके इष्ट साध्य विपरीत हो रहे कथंचित् बुद्धिमान् के निमित्तकारणपनको साध रहा है । अतः तुम्हारा हेतु विशेष रूपसे विरुद्ध होरहा विरुद्ध नामका हेत्वाभास हुआ । नाक्रोशतः पलायंते विरुद्धा हेतवः स्वतः । सर्वगे बुद्धिमद्धेतौ साध्येन्यैर्जगतामिह ॥ ५४ ॥ ४४३
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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