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तत्वार्थचिन्तामणिः
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जीवोंको जो पदार्थ वर्तमान वृक्ष या खानद्वारा वर्षों अथवा महीनोंमें प्राप्त ( नसीब ) होते हैं, किन्तु ये भोगभूमियोंके वृक्ष अन्तर्मुहूर्त्तमें ही उन अधिक सुन्दर अभीष्ट पदार्थ रूप फल जाते हैं यहां भी आम के वृक्षसे अमरूद या अनार नहीं मिल सकते हैं । उसी प्रकार भोगभूमि में भी वादित्रांग वृक्षोंसे भोजन या वस्त्र प्राप्त नहीं हो सकते हैं । उपादान उपादेय शक्तिका या निमित्त नैमित्तिक भाव का कहीं भी अतिक्रमण नहीं हो सकता है, भोगभूमियोंमें अमृत रस के समान स्वादवाली चार अंगुल ऊंची और मुखकी वाफसे ही टूट जाय ऐसी कोमल घास उपजती रहती है। गाय, भैंस, आदि पशु उस घासको चरते हैं, वहांकी भूमियां बडी सुन्दर बनी हुई हैं । कहीं कहीं सिड्डीदार बावडी, सरोवर, नदियां, और क्रीडापर्वत भी विद्यमान हैं । नदीके किनारोंपर रत्नचूर्ण मिश्रित वालुके ढेर लग रहे हैं । जैसे कि आजकल भी कचित् वालूमें भुड भुड या चांदीके कण, माणिक रेती आदि पायी जाती हैं। मांस भक्षण नहीं करनेवाले और परस्पर में अविरोध रखते हुये वहां पंचेंद्रियतिर्यच जीव भी हैं। चूहे, सर्प, नौला, उल्लू, बगला आदि तिर्यच और विकलत्रय जीव अथवा असंज्ञी जीव या नपुंसक पंचैद्रिय एवं जलचरत्रस ये भोगभूमिमें नहीं पाये जाते हैं । सभी मनुष्य तिर्यच विनीत, मन्दकषाय, मधुरभाषी, कलाकुशल, अमायाचारशील आदिसे संयुक्त हैं । इष्टवियोग अनिष्टसंयोग, स्वेद, ईर्षा, मात्सर्य, अनाचार, उन्माद, शरीरमल, पसीना चिन्ता, रोग, जरा, कृपणता, भय, आदिसे रहित हैं । सर्वथा अष्टादश दोषोंसे रहित तो जिनेंद्र ही हैं । फिर भी आजकल के मनुष्य तिर्यचों समान तीव्र रोग, चिन्ता, भय, क्षुधा, जरा, नहीं होनेसे देव या भोगभूमियां निर्जर, निर्भय, नीरोग, कह दिये जाते हैं । कर्मभूमिमें मनुष्य तिर्यच या व्रतियोंको दान देनेसे या अनुमोदना करनेसे जीवों की उत्पत्ति भोगभूमिमें होती है । भरत और ऐरावतसे अतिरिक्त अन्य देवस्थानों या क्षेत्रों में तथा ढाई द्वपिके बाहर असंख्यात द्वीपोंमें सदा एकसा प्रवर्तन रहता है । हां, उत्सर्पिणी, अवसर्पिणी, द्वारा भरत और ऐरावत क्षेत्रों में विशेषतया इनके आर्य खण्डों में कर्मभूमि भोगभूमि और भोगभूमि कालसे कर्मभूमि कालकी परावृत्ति होती रहती है । भरत, ऐरावत, सम्बन्धी विजयार्ध पर्वत और म्लेच्छ खंडोंमें चौथे कालके आदि, अंत, सदृश काल वर्तता है। मोक्षमार्ग चालू नहीं है । आर्य खंडमें सुषमसुषमा कालकी प्रवृत्ति होनेपर म्लेच्छ खंडोंमें शरीर पांचौ धनुष और आयु कोटिपूर्व वर्ष है । तथा आर्य खंडोंमें दुःषमदुःषमा कालकी प्रवृत्ति होनेपर विजयार्ध और ग्लेच्छ खंडोंमें शरीर सात हाथ और आयुः एक सौ बीस वर्ष होजाती है । जघन्य आयुः अन्तर्मुहूर्त है । वासके अठारहवें भागवाला अन्तर्मुहूर्त नहीं लेना । इससे बडा अन्तर्मुहूर्त पकडना । क्योंकि इन विजयार्ध और म्लेच्छ खंडों में लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य नहीं हैं । बीस कोटाकोटी अद्धासागर के कल्प कालमें अठारह कोटा कोटी सागर तो भोगभूमि काल है और केवल दो कोटा कोटी सागर कर्मभूमि रचनाका काल है । कर्मभूमिका प्रारम्भ होते ही ये पार्थिव कल्पवृक्ष नष्ट होजाते हैं । भोगभूमिके प्रारम्भमें पुनः उपज जाते हैं, जैसे कि यहां इस कालमें भी कितने ही पर्वत उपजते बिनसते रहते हैं । किन्तु बीजसे उपजने वाले वृक्षों की संतान नहीं
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