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________________ २६१ तत्त्वार्यलोकवार्तिक नन्वायुःक्षयनिमित्तोपमृत्युः कथं केनचित्प्रतिक्रियते तीसदेद्योदयनिमित्तं दुःखं कथं केनचित्प्रतिक्रियतां ? सत्यप्यसद्वद्योदयेन्तरंगे हेतौ दुःखं बहिरंगे वातादिविकारे तत्पतिपक्षीषधोपयोगोपनीते दुःखस्यानुत्पत्तेः प्रतीकारः स्यादिति चेत्, तर्हि सत्यपि कस्यचिदायुरुदयेंतरंगे हेतौ बहिरंगे पथ्याहारादौ विच्छिन्ने जीवनस्याभावे प्रसक्ते तत्संपादनाय जीवनाधानमेवापमृत्योरस्तु प्रतीकारः। यहां किसी अन्यवादीका स्वपक्ष अवधारण है कि आयुष्य कर्मका कारणवश पूरा खिर जानारूप क्षयको निमित्त पाकर होनेवाली अपमृत्यु भला किसी भी एक औषधि, मंत्र या अनुष्ठान आदि करके कैसे प्रतीकारको प्राप्त की जा सकती है ? अर्थात्-अपने अपने नियत समय अनुसार ही जीवोंका मरण होना अभीष्ट करनेवाला वादी यों कह रहा है कि चाहे किसीकी भी मृत्यु या अपमृत्यु क्यों न होय, वह पूर्व उपार्जित आयुष्यकर्मके क्षय होनेपर ही होगी । मध्यमें उसका प्रतीकार करना व्यर्थ है । लिखे, बदेसे एक क्षणमात्र भी आयुः न्यून या अधिक नहीं होपाती है । इस कुत्सित अवधारणका प्रत्याख्यान करते हुये आचार्य कहते हैं कि तब तो असातावेदनीयकर्मके उदय को निमित्त मानकर हुआ दुःख भला किस ढंगसे किस चिकित्सा, मंत्र, आदि करके प्रतीकारको प्राप्त किया जा सकेगा ? बताओ। जैसे आप “ नामुक्तं क्षीयते कर्म कल्पकोटिशतैरपि" इस सिद्धान्त अनुसार आयुष्यकर्मका पूरा भोग होकर ही जीवोंका मरण होना स्वीकार करते हैं, उसी प्रकार असातावेदनीयकर्म भी अपना परिपूर्ण कार्य दुःख देना कितने ही दिनों, महिनोंतक पीडा पहुंचाना, परिताप कर देना, आदि फलोंको देकर ही निवृत्त होगा । औषधि आदिसे असवद्यका प्रतीकार नहीं किया जा सकेगा, किन्तु आप पहिले चिकित्सा आदि द्वारा दुःखोंका मध्यमें ही प्रतीकार हो जाना स्वीकार कर चुके हैं । यदि तुम यों कहो कि दुःखके अभ्यन्तर कारण असतावेदनीयकर्मका उदय होते संते भी और दुःखके बहिरंगकारण वातव्याधि, उदरशूल, नेत्रपीडा, मस्तकवेदना आदि रोग या वात, पित्त, कफ, दोषजन्य विकारोंकी प्राप्ति हो जानेपर हुये उस दुःखको मेटनेवाली प्रतिपक्ष औषधिके उपयोगका प्रसंग मिल जानेपर दुःखकी उत्पत्ति नहीं होनेसे ही दुःखका प्रतीकार होना समझ लिया जायगा । तुम्हारे यों कहनेपर तब तो हम जैनसिद्धान्ती भी कह देंगे कि किसी जीवके जीवित रहनेके अंतरंगकारण लंबे चौडे आयुःकर्मका उदय होते रहते हुये भी यदि जीवित रहनेके बहिरंग कारण पथ्यआहार उचित जलवायुसेवन, पाकाशयकी शुद्धि, आदिका विच्छेद प्राप्त होजानेपर जीवित रहनेके अभावका प्रसंग प्राप्त हो चुका समझो । ऐसी दशामें उस आयुःके मध्यविच्छेदको रोककर उसी दीर्घ जीवनका संपादन करनेके लिये जीवित रहनेको वैसाका वैसा ही पुनः संधारण कर लेना ही अपमृत्युका प्रतीकार होजाओ । भावार्थ-" यत्पूर्व विधिना ललाटलिखितं तन्मार्जितुं कः क्षमः" इस नियमको सर्वत्र लगा बैठना। आत्माके पुरुषार्थ या अन्य कारणोंसे जैसे खींच ली गयीं कर्मिण वर्गणायें कर्म
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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