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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः २४९ प्रमाण कोंतीसे लेकर सबसे छोटी अंगुलीतक लम्बे हाथकी नापको अरनि कहते हैं । आहारक शरीर अतिशय युक्त ऋद्धिधारी प्रमत्तसंयमी मुनिके ही होता है। अधिकसे अधिक या न्यूनसे न्यून छठवें गुणस्थानसे अन्य गुणस्थानोंको धारनेवाले मनुष्योंके नहीं हो पाता है । देव, नारकी, और तिर्यच जीवके आहारक शरीर होनेका असम्भव है, यह समझ.लेना चाहिये । आहारकके स्वामी कहे गये प्रमत्तसंयतके साथ एवकार लगा देनेसे प्रमत्तसंयमीके ही आहारकशरीर है, यो अवधारण करना उचित है । प्रमत्तसंयमीके आहारक ही है, यह अनिष्ट अवधारण नहीं कर बैठना । अतः उक्त मुनिके औदारिक या वैक्रियिक शरीरकी निवृत्ति नहीं हो पाती है। तच्छरीरांतरात्कुतो भिन्नमित्याह । श्री विद्यानन्द स्वामीके प्रति किसीका प्रश्न है कि शरीरोंमें परस्पर भेदको साधते हुये आप युक्तियां देते हुये चले आ रहे हैं । तदनुसार यह बताओ कि औदारिक, वैक्रियिक आदि अन्य शरीरोंसे वह आहारक भला किस कारणसे मिन्न हो रहा है ? ऐसी जिज्ञासा होनेपर श्री विद्यानन्द स्वामी समाधान वचन कहते हैं। आहारकं शरीरं तु शुभं कार्यकृतत्वतः । विशुद्धिकारणत्वाच विशुद्धं भिन्नमन्यतः ॥ १॥ अव्याघातिस्वरूपत्वात्प्रमत्ताधिपतित्वतः । फलहेतुस्वरूपाधिपतिभेदेन निश्चितम् ॥ २॥ औदारिक, वैक्रियिक, तैजस, कार्मण, ये नहीं किन्तु आहारक शरीर ( पक्ष ) शुभ है, ( साध्य ) शुभकार्य आहारक काययोगको करनेवाला होनेसे अथवा शुभक्रियाओं द्वारा बनाया जा चुका होनेसे ( हेतु ) । इस अनुमान द्वारा आहारक शरीरमें शुभपना "सिद्ध होजाता है जो कि अन्य शरीरोंसे ओहारकको भिन्न कर देनेका ज्ञापकलिंग है । तथा दूसरा अनुमान यह है कि आहारकशरीर ( पक्ष) विशुद्ध है ( साध्य ) विशुद्धिका कारण होनेसे (हेतु ) । बहुव्रीहि वृत्ति करनेपर निरवद्य विशुद्ध पुण्यकर्मका कार्य होनेसे यह अर्थ भी निकल पडता है ( हेतु )। इस अनुमानद्वारा विशुद्धता सिद्ध होजानेपर वह विशुद्ध आहारक शरीर अन्य चार शरीरों से निराला साध लिया जाता है। अव्याघाति स्वरूप होनेसे और जिसका स्वामीपना प्रमत्तसंयमी, मुनि महाराजको ही प्राप्त होरहा होनेसे वह आहारक शरीर अव्याघाति और प्रमत्तस्वामिक होता हुआ अन्य शरीरोंसे भिन्न है। यों श्री उमास्वामी महाराज द्वारा इस सूत्रमें कहें गये फल, हेतु, स्वरूप और अधिपतिके भेद करके आहारक शरीरमें भेदका निश्चय कर लिया गया है। शुभं, विशुद्धं, अव्याघाति, ये आहारक शरीरके तीन विशेषण प्रथमा विभक्तिवाले हैं तथा षष्ठी विभक्तिका अर्थ स्वामी कर प्रमत्तसंयतस्य का पर्याय
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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